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समाधानः- नहीं, नहीं। क्षायिकवालेको देरसे नहीं आती, क्षायिकवालेको जल्दी आती है। क्षयोपशमवालेको जल्दी आये और क्षायिकवालेको देर लगे, ऐसा नहीं बनता।
मुमुक्षुः- ऐसे कोई परिग्रहमें पड गया हो तो देर भी लगे।
समाधानः- नहीं, नहीं। क्षायिकवालेको देर नहीं लगती। भले बाहरसे चाहे जितना परिग्रह हो। क्षायिकवालेकी परिणति तो ज्यादा दृढ है। उसे देर नहीं लगती।
मुमुक्षुः- सुरतमें कुछ चर्चा हुयी थी।
समाधानः- क्षायिकवालेको देर नहीं लगती।
मुमुक्षुः- सुरतमें नहीं, पालनपुरमें जो नगीनभाई है उन्होंने मुझे ऐसे समझाया।
समाधानः- नहीं, नहीं। क्षयोपशमवालेको जल्दी आये और क्षायिकवालेके देर लगे ऐसा नहीं होता।
मुमुक्षुः- नहीं, क्षायिकवालेको जल्दी हो, परन्तु कोई क्षायिकवाला लडाईके मैदानमें गया हो तो देर भी लगे, ऐसा हो सकता है।
समाधानः- नहीं, नहीं। क्षायिकवालेको देरसे नहीं होती।
मुमुक्षुः- समकित होनेका मूल कारण अपना उपादान और व्यवहारसे ज्ञानीके प्रति अर्पणबुद्धि नहीं आयी है, ऐसा हो सकता है? दूसरे सब व्यवहारका छेद करे तो?
समाधानः- मूल कारण अन्दर आत्मस्वभावकी ओर रुचिका पलटा करे। तो जिसे आत्माकी रुचि होती है उसे, जिन्होंने प्रगट किया ऐसे गुरु पर, देव-गुरु-शास्त्र पर उसे अर्पणता आये बिना नहीं रहती। उसे उनकी महिमा आये बिना नहीं रहती। जो अंतरमें जाय, उसे सच्चे देव-गुरु पर महिमा आती ही है। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक (सम्बन्ध है)। देशनालब्धिका जैसा सम्बन्ध है, वैसे अंतरमें जो रुचिवाला है उसे सच्चे देव- गुरु-शास्त्र हृदयमें आये बिना नहीं रहते। फिर बाह्य कार्य क्या भजे, उसे कितना सान्निध्य मिल वह एक अलग बात है, परन्तु उसके हृदयमें आ जाते हैं। ... रुचि भले अपनी ओर जाती है, परन्तु उसके जो साधन हैं, जिन्होंने वह प्रगट किया है, उसकी महिमा उसके हृदयमें आये बिना नहीं रहती।
मुमुक्षुः- मुख्यमें मुख्य साधन ज्ञानीके प्रति अर्पणबुद्धि आनी, उसमें सब समा जाता है?
समाधानः- मुख्यमें मुख्य साधन ज्ञानी पर अर्पणातबुद्धि परन्तु... अर्पणबुद्धि निज चैतन्यकी महिमापूर्वक होनी चाहिये। मुझे चैतन्य प्रगट हो, ऐसी उसकी बुद्धि होनी चाहिये। ऐसा होना चाहिये। अकेली अर्पणतामें सर्वस्व मान ले और इसमेंसे ही मुझे सब होगा, ऐसी दृष्टि नहीं होनी चाहिये। आत्मा-ओरकी रुचि, सर्व विभावसे मुझे न्यारापन हो,