१७४
समाधानः- ... ये जो विभाव है, विभावका लक्षण दिखता है वह आकुलतारूप है, विपरीत भाव है। मेरा स्वभाव आनन्दरूप, शान्तिरूप, ज्ञायकता (है)। ज्ञायकतत्त्व है वही मैं हूँ। उसका अदभुत आनन्द तो उसे निर्विकल्प दशा होती है तब प्रगट होता है। परन्तु उसे ज्ञायकता तो पहिचानमें आती है। इसलिये ज्ञायकलक्षणको पहिचानना। उसका ज्ञान, उसकी दृष्टि, उसकी लीनता सब उसमें करे। बाहर विभावकी महिमा टले और विभावमें आकुलता लगे, उसकी विरक्ति हो तो स्वभावकी ओर स्वयं जाता है। और उसे यथार्थ लक्षणसे पहिचानना, यह उसका उपाय है। दूसरा कोई उपाय नहीं है। स्वयंको पहिचानकर, उस पर यथार्थ दृष्टि करके उसमें लीनता करे। लेकिन उसके लिये तत्त्व विचार आदि करना। यथार्थ वस्तुका स्वरूप पहिचाननेका प्रयत्न करना।
सच्चे देव-गुरु-शास्त्र तो उसके हृदयमें होते हैं। जिन्होंने प्रगट किया उनकी महिमा और उसका हेतु क्या? कि ज्ञायकतत्त्वको पहिचानना है। पहिचाना जाता है स्वयंसे, अपने पुरुषार्थसे पहिचान होती है। जैसे स्फटिक स्वभावसे निर्मल है, उसमें प्रतिबिंब जो बाहरसे उठते हैं, लाल-काले फूलके, वह प्रतिबिंब (स्फटिकका) मूल स्वभाव नहीं है। स्फटिक स्वभावसे निर्मल है।
वैसे आत्मा स्वभावसे निर्मल है। शुद्धात्मा अनादिअनन्त (है)। उसका नाश नहीं हुआ। अनादिअनन्त उसके अनन्त गुण ज्योंके त्यों हैं। जैसे स्फटिक निर्मल है, वैसे आत्मा निर्मल है। जैसे पानी स्वभावसे शीतल और निर्मल है, वैसे आत्मा निर्मल है। परन्तु विभाव उसे हुआ है निमित्त-ओरसे, परन्तु अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। स्फटिकमें जो लाल-काले फूलके निमित्तसे (प्रतिबिंब) उठे, परन्तु परिणमन स्फटिकके स्वयंकी पुरुषार्थकी मन्दताके कारण विभाव होता है। अतः पुरुषार्थ अपनी ओर बदलकर, मैं शुद्धात्मा चैतन्य हूँ, ये विभाव मैं नहीं हूँ, (ऐसा भेदज्ञान करना)। फिर तुरन्त सब टल नहीं जाता। अल्प अस्थिरता रहती है। ... गृहस्थाश्रममें हो, परन्तु उसकी भेदज्ञानकी धारा चालू ही रहती है। क्षण-क्षणमें उसे भेदज्ञान वर्तता है।
परन्तु पहले उसे मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ ऐसा अभ्यास अंतरसे होना चाहिये। पहले ऊपर-ऊपरसे हो उससे होता नहीं, बीचमें वह विचार आये, परन्तु अंतरसे