अभ्यास होना चाहिये। मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसी लगन उसे दिन और रात, मैं ज्ञायक हूँ, मैं यह नहीं हूँ, यह विभाव से मैं नहीं हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी लगन अंतरमें लगनी चाहिये, तो हो। तो शक्तिमेंसे प्रगट हो। ज्ञायककी विशेष भेदज्ञानकी धारा चले तो उसे विकल्प टूटकर निर्विकल्प दशा होकर स्वानुभूतिका तो प्रसंग आता है। परन्तु उसे पहले ज्ञायककी धारा (चलनी चाहिये)।
मुमुक्षुः- ज्ञायक होनेके पूर्व क्या विचार करना?
समाधानः- पहले सच्चा समझ (करके) उसका लक्षण पहिचानना। ज्ञायक होने पूर्व उसका लक्षण पहिचाननेका प्रयत्न करे। तत्त्वका विचार करे। मैं कौन हूँ? ये पर कौन हूँ? उन सबका यथार्थ विचार करे। तत्त्व समझनेका पहले विचार करना। सच्ची समझ होनेके विचार करे। उसका मंथन, उसका घोलन, उसकी लगन सब करे। यथार्थ विचार (करे)। समझनेका विचार। ज्ञायक होने पूर्व उसके विचार, गहरे विचार करे। और विचारको टिकानेके लिये शास्त्रका अभ्यास करे। ज्यादा जाने तो ही हो, ऐसा नहीं है। परन्तु मूल प्रयोजनभूत (तत्त्वको) समझनेका प्रयत्न करे। प्रयोजनभूत तत्त्वको विचारसे जानना चाहिये। विचार करके निर्णय करना कि, यह ज्ञायक है वही मैं हूँ। ऐसे यथार्थ प्रतीत करनी। यह मैं नहीं हूँ और यह ज्ञायक है वही मैं हूँ।
मुमुक्षुः- शहरका जीवन और प्राथमिक मुमुक्षुके लिये दो शब्द।
समाधानः- शहरमें तो... मुमुक्षुकी भावना ऐसी होती है कि जहाँ देव-गुरु- शास्त्र विराजते हों, जहाँ साधर्मीओंका संग मिलता हो तो उसकी रुचिका पोषण हो। ऐसी उसकी अन्दर भावना रहे कि ऐसे संगमें रहना। ऐसी भावना रहे। सदगुरुका उपदेश मिलता हो या कोई साधर्मीका संग मिलता हो। उसमें मुमुक्षुता अधिक दृढ होनेका कारण बनता है। लेकिन वैसे संयोग न हो तो... ऐसे बाहरके संयोग न हो तो भी उसे भावना तो ऐसी ही होती है कि मुझे अच्छा संग मिले। निमित्तोंकी भावना रहे। परन्तु उपादान तो अपना तैयार करना पडता है। जहाँ रहता हो, बाहर दूसरे देशमें, उसके संगमें या देव-गुरु-शास्त्रके संगमें रहता हो, परन्तु उपादान स्वयंको तैयार करना पडता है। परन्तु उसे ऐसा आये बिना नहीं रहता कि, मुझे देव-गुरु मिले, साधर्मीओंका संग मिले, गुरुका उपदेश मिले, ऐसी भावना उसे रहती है। और वैसा संयोग जहाँ दिखाई दे, वहाँ रहता भी है। और वहाँ बस भी जाय। परन्तु मुमुक्षुको यह सब बीचमें होता है। बाहरके दूसरे साधनोंमें तो उसका उतना पुरुषार्थ न हो तो उसको टिकना मुश्किल पडता है। पुष्टि होनी, मुमुक्षुताकी पुष्टि होनी मुश्किल पडता है, बाह्य संगमें।
मुमुक्षुः- असत प्रसंग छोडने चाहिये न?
समाधानः- हाँ, छोडनेकी उसे भावना आये। उसे ऐसा हो कि यह छूट जाय,