१७६ अच्छे संगमें जाय, छोड दे। उसके ऐसे संयोग न हो, न छूटे तो क्या करे? स्वयं अपने उपादानकी तैयारी करे। बाह्य संयोग ऐसे हो कि छूटे ही नहीं, तो करे क्या?
मुमुक्षुः- स्वसंवेदन कब होता है?
समाधानः- स्वसंवेदन तो आत्माको पहिचाने, पहले आत्मा-ज्ञायकको पहिचाननेका प्रयत्न करे। आत्माका क्या स्वरूप है? ऐसे ज्ञायकको पहिचाननेका प्रयत्न करे। लगन लगाये, दिन-रात उसकी झँखना हो कि मुझे ज्ञायक कैसे पकडमें आय? ज्ञायक ग्रहण हो, ज्ञायककी भेदज्ञानकी उग्रता हो कि मैं यह चैतन्य हूँ, अनन्त गुणसे भरपूर (हूँ)। ऐसा विकल्प नहीं, अपितु ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण करे। ज्ञानमें जाने कि अनन्त शक्तिसे भरपूर मैं चैतन्यतत्त्व कोई अदभुत हूँ! उसे ग्रहण करे, उसकी उग्रता करे, ज्ञायकताकी उग्रता करे। क्षण-क्षणमें भेदज्ञानकी उग्रता होते-होते उसे विकल्प टूटकर स्वानुभूति होनेका प्रसंग आता है। परन्तु उसकी ज्ञायकताकी उग्रता होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- अवलम्बनकी कोई आवश्यकता नहीं है?
समाधानः- अवलम्बन तो देव-गुरु-शास्त्र उसमें बीचमें होते हैं। उसके शुभभावके अन्दर होते हैं। परन्तु अंतरमें पुरुषार्थ तो स्वयंको ही करना रहता है। कहीं देव-गुरु- शास्त्र उसे करवा नहीं देते। वे तो निमित्तमात्र होते हैं। करना तो स्वयंको ही है, पुरुषार्थ स्वयंको ही करना पडता है। उसे गुरु क्या कहते हैं? देव क्या कहते हैं? शास्त्रमें क्या आता है? उसका अवलम्बन लेकर विचार करे। मुक्तिका मार्ग किस प्रकारसे बताया है, उसका स्वयं विचार करे कि गुरुने यह मार्ग बताया है। स्वयं कैसे समझता है, उसका मिलान करे कि गुरुने यह कहा है, ज्ञायकको पहिचाननेको कहा है, यह सब पर है, ऐसे मिलान करे। ऐसे विचारमें अवलम्बन ले, परन्तु पुरुषार्थ तो स्वयंको करना है। निर्णय स्वयंको ही करना पडता है कि वस्तु तो यही है। यह ज्ञायक है वही मैं हूँ और यह विभाव मैं नहीं हूँ। ऐसा निर्णय तो स्वयं अपनेसे करता है। अपनेसे करके उसमें पुरुषार्थकी उग्रता करके उसकी बारंबार दृढता करे तो विकल्प टूटकर उसे स्वानुभूति होनेका प्रसंग आता है।
समाधानः- .. गुरुदेवके शब्द है।
मुमुक्षुः- हाँ, गुरुदेवके शब्द है। गुरुदेव बहुत बोलते थे।
समाधानः- "बंध समय जीव चितीये उदय समय शा उचाट'। देव-गुरु-शास्त्रसे दूर रहनेका...
मुमुक्षुः- ये उनकी सांस है।
समाधानः- करनेका तो यही है न। दूर रहे तो भी यही रटन करना। देव- गुरु-शास्त्र हृदयमें रखना। पहले बचपनमें जो सुना है, वह सब याद करना। गुरुदेवकी