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समाधानः- हाँ, हाँ। अज्ञानीको भी सदाकाल भगवान आत्मा ही अनुभूतिस्वरूप है। स्वयं ही है। लेकिन उसे लक्ष्यमें नहीं लेता है।
मुमुक्षुः- लक्ष्यमें नहीं आनेका कोई कारण?
समाधानः- लक्ष्यमें नहीं लेनेका कारण अनादिके अभ्यासके कारण पर-ओर दृष्टि है। परको अपना मानता है। मानों मैं परको जानता हूँ, स्वयं अपनी ओर जाननेका प्रयत्न नहीं करता है, अपनी प्रतीति नहीं करता है। ज्ञानकी दिशा अपनी ओर नहीं मोडता है। स्वयंकी प्रतीति नहीं करता है। लीनता अपनी ओर नहीं करता है। पर- ओर ज्ञान, प्रतीत, आचरण सब पर ओर जाता है।
समाधानः- .. गुरुदेवने बहुत समझाया है।
मुमुक्षुः- वह तो आप कहते हो, गुरुदेवको हमने सुना था। लेकिन अब ज्यादा समय हो गया इसलिये भूलनेकी प्रकृति हो गयी है, इसलिये भूल जाते हैं।
समाधानः- आपने तो बहुत सुना और बहुत ग्रहण किया है।
मुमुक्षुः- मैं तो कहता हूँ, बहुत नहीं, सब सुना है। उसमें मेरी स्वीकृति है।
समाधानः- ... पहचाननेका कहा है। ज्ञायक आत्माका परिणमन करनेको कहा है।
मुमुक्षुः- बराबर है। उसे कैसे पहचानना, यह बात है।
समाधानः- स्वानुभूति करनेको गुरुदेवने कहा है।
मुमुक्षुः- ज्ञायकको मुख तो है नहीं।
समाधानः- मुख नहीं है, परन्तु लक्षणसे पहिचानना। लक्षणसे पहचाननेका गुरुदेवने कहा है। उसका लक्षण पहिचानना। ज्ञायक लक्षण पहचानमें आता है। उसकी परिणति करनेको कहा है।
मुमुक्षुः- लेकिन जैसे .. इन्द्रियोंसे दिखे नहीं, मनसे उसका कुछ नक्की होता नहीं, अब करना कैसे?
समाधानः- स्वयं है न, अन्य नहीं है। इसलिये स्वयं अपनेसे पहचानमें आता है। स्वयं अपने लक्षणसे..
मुमुक्षुः- स्वयं अपनेसे पहचानमें आता है। उसका साधन इन्द्रिय तो नहीं है। उसका साधन मन नहीं है। अपनी पर्याय अपने सन्मुख हो तब आत्माको पहिचाना कहा जाय। लेकिन पर्यायको अपनी ओर मोडनी कैसे?
समाधानः- स्वयं ही मोड सकता है।
मुमुक्षुः- मोड तो स्वयं ही सकता है। दूसरा कोई वजुभाई मोड दे?
समाधानः- .. बताया है और मोडनेको कहा है। वह करनेका है।
मुमुक्षुः- गुरुदेवका महा उपकार है।