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हो जाय, वह वास्तवमें करने जैसा है।
वह कैसे प्रगट हो? उसीका अभ्यास करने जैसा है। स्वयंमें एकत्वबुद्धि, परसे विभक्त होकर स्वयं स्वयंमेंसे प्रगट होता है। उसमें ही उसे विश्राम मिले, उसीमें उसे शान्ति मिले ऐसा है। यदि अनादिकी उसे थकान लगे तो अंतरमें ही विश्राम (है)। आनन्द, ज्ञान सब अंतरमें भरा है। बाहर कहीं लेने जाना नहीं पडेगा।
मुमुक्षुः- माताजी! अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा कहकर क्या कहना चाहते हैं?
समाधानः- अनुभूति अर्थात स्वयं चैतन्य चैतन्यरूप अनुभवमें आ रहा है। अर्थात उसका मूल स्वभाव, जो उसकी निधि-उसे मूल स्वभावरूपका ख्याल नहीं है। परन्तु चेतनता चेतनतारूप अनुभवमें आती है। अनादि काल हुआ तो वह जड नहीं हो गया है। ज्ञान ज्ञानरूप अनुभवमें आ रहा है। वह स्वयं लक्ष्य करे तो ज्ञान ज्ञान ही है। ज्ञान मिट नहीं गिया है। ज्ञान ज्ञानरूप अनुभवमें आ रहा है। उसका मूल स्वानुभव जो उसका शुद्ध स्वभाव है, वह उसे ख्यालमें नहीं है। परन्तु उसकी चेतनता तो चेतनारूप अनुभवमें आ रही है।
मुमुक्षुः- अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा यानी ज्ञायक लेना है?
समाधानः- ज्ञायक। पूरा ज्ञायक अनुभूतिरूप ही है। अनुभूति यानी उसके स्वभावका मूल आनन्द है, ऐसा नहीं है। परन्तु वह ज्ञायक ज्ञायकरूप ही रहा है। पररूप नहीं हुआ है। उसका असाधारण स्वभाव जो ज्ञायकता है, वह ज्ञायकता ज्ञायकतारूप रहा है, पररूप नहीं हुआ है। अपनेरूप अनुभवमें आ रहा है। स्वयं अपनेमें ही रहा है। बाहर वास्तविक रूपसे नहीं गया है।
मुमुक्षुः- अज्ञानी जीवोंको भी सदा ज्ञायक ही अनुभवमें आता है?
समाधानः- सदा ज्ञायक अर्थात ज्ञायकता, ज्ञायकरूप परिणमन नहीं है। परन्तु उसका अस्तित्व ज्ञायक, ज्ञायकरूपका अस्तित्व है। उसका लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य बाहर जाता है। परन्तु चेतनता चेतनतारूप ही स्फुरायमान है। ये जड तो कुछ जानता नहीं। ये चेतन चेतनतारूप स्फुरायमान अनुभवरूप है।
मुमुक्षुः- सदा काल?
समाधानः- सदाके लिये चैतन्य चैतन्यरूप ही है। समता, रमता, ऊर्ध्वता। उसका रम्य स्वभाव है, ज्ञायक स्वभाव है, उसका वह सब स्वभाव स्फुरायमान है। लेकिन उसे प्रगट अनुभव-अनुभूति नहीं है। स्वभावरूप अनुभवमें आ रहा है। उसे ख्याल नहीं आता है। ... चेतनता चेतनतारूप अनुभूतिरूप है। मूल उसे अपने स्वभावकी अनुभूति नहीं है। लक्ष्यमें ले तो प्रगट हो ऐसा है।
मुमुक्षुः- अज्ञानीको भी सदाकाल भगवान आत्मा ही अनुभवमें आता है?