१८६ है। उसका मूल जो मूल स्वभाव निधि है, वह उसे ख्यालमें नहीं है। परन्तु ज्ञान चेतनता चेतनतारूप अनुभवमें आ रही है, परन्तु वह लक्ष्यमें लेता नहीं है। वह लक्ष्यमें ले, गुरुदेवने बताया है कि तेरा आत्मा जाननेवाला है, ज्ञायक है, चेतनस्वरूप है, जडरूप नहीं हुआ है। यह विभाव तो अनादिसे स्वयं उसमें जुडता है, इसलिये विभाव दिखता है। परन्तु अंतर दृष्टि करे तो चेतन चेतनरूप ही दिखे। उसे दिखता नहीं है।
उसकी चेतनता सदा शाश्वत रही है। अनादि काल गया तो भी उसकी चेतनता मिटकर जड नहीं हो गया है। निगोदमें गया तो भी उसकी शक्ति तो ज्योंकी त्यों अनन्त शक्ति भरी है। उसका लक्ष्य करे तो वह प्रगट हो सके ऐसा है। उसकी प्रतीति करे, उसका ज्ञान करे, उसमें लीनता करे। ऐसा अंतरमें गहराईमें जाकर पुरुषार्थ करे तो प्रगट हुए बिना रहता ही नहीं।
गुरुदेवने वह एक ही मार्ग बताया है। उसकी रुचि, उसका अभ्यास, उसकी लगन सब करने जैसा है। जैसे पानी मलिन हो तो उसमें औषधि डालनेसे निर्मल होता है। वैसे स्वयं प्रयास करे तो उसमेंसे मलिनता टल जाय। क्योंकि निर्मलता अन्दर भरी ही है। उसमेंसे प्रगट होता है। जो है वह उसमेंसे निकलता है। कहीं बाहर लेने नहीं जाना पडता। अंतरमें ज्ञान, आनन्द सब अन्दर भरचक भरा है। उसमें वह प्रयास करे तो प्रगट हो सके ऐसा है। उसका घोटन करनेसे वह जो है वह प्रगट होता है। उसकी परिणति उस ओर जाती नहीं, परिणति बाहर जाती है। परन्तु परिणतिको उसमें यदि दृढ करे, उस ओर ले जाय तो उसीमेंसे शुद्ध पर्यायें प्रगट होती हैं। इसलिये वही करने जैसा है।
उसकी स्वानुभूति एक बार प्रगट हो तो फिर उसके भवका अभाव होता है। फिर तो बारंबार उसीमें जाता है। जिसे अंतरमें लगी उसे फिर बाहर जानेका, उसने चैतन्यका आश्रय लिया, बाहरकी रुचि छूट गयी तो आचार्यदेव कहते हैं, फिर उसे रमनेका स्थान अपना क्रिडावन-बाग अपना ही है, उसीमें जाता है, बाहर जाता नहीं। हर जगहसे छूटकर निराला हो गया, निरालंबी। चैतन्यके आलंबनसे, स्वावलंबनसे स्वयं अपनेमें जाता है। परन्तु स्वयं अपना आलम्बन लेता नहीं है और बाहरके आलम्बनमें रुक जाता है। स्वयंका स्वालम्बन ले तो उसीमेंसे सब स्वालंबी पर्यायें, स्वलम्बनसे प्रगट होती है। ज्ञानकी, दर्शनकी, चारित्रकी, आनन्दकी सभी पर्यायें अपना आलम्बन लेनेसे उसमेंसे प्रगट होती हैं। इसलिये उसीमें विश्राव कर, उसीमें संतुष्ट हो, आचार्यदेव कहते हैं, उसीमेंसे तुझे अनुपम सुख उत्पन्न होगा। बाहरसे कुछ होता नहीं। उसके लिये उसीका विचार, उसका चिन्तवन, उसका मनन सब करने जैसा है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, सब एक चैतन्यकी गहरी रुचि करके ज्ञायक आत्माको प्रगट करना। ज्ञायक ज्ञायकतारूप परिणमित