२०२ सहज नहीं होता। बार-बार उसका अभ्यास करता है। ... उसे दृढता होती है, पहले।
एकत्वबुद्धि जो अनादिकी है वह जैसे सहज है, वैसे उसे भेदज्ञानकी धारा सहज रहती है। उस जातका पुरुषार्थ उसे सहज हो गया है।
मुमुक्षुः- सहज है, फिर भी पुरुषार्थ तो है।
समाधानः- पुरुषार्थ है। सहज होने पर भी पुरुषार्थ है। इसलिये उसे बार-बार विचार करके टिकाना नहीं पडता इसलिये वह सहज है। विकल्प करके या विचार करके या स्मरणमें लेकर ऐसे उसे टिकाना नहीं पडता। इसलिये सहज है। परन्तु परिणतिकी धारा है वह उसे पुरुषार्थपूर्वक है।
मुमुक्षुः- .... स्वकी अपेक्षारूप परिणतिमें पुरुषार्थ रहा है।
समाधानः- हाँ, पुरुषार्थ रहा है। अपनी ओरका जो आश्रय है उसमें पुरुषार्थ रहा है।
मुमुक्षुः- बदलता नहीं। धारणाज्ञान पर्यंत पहुँचता है, समझमें भी बिठाता है, परन्तु परिणति नहीं बदलता। परिणति बदलता नहीं है अर्थात परका लक्ष्य..
समाधानः- परिणति जो एकत्वकी परिणति बन गयी है, उस परिणतिको भिन्न नहीं करता है। निर्णय हो गया कि मैं भिन्न ही हूँ, मैं ज्ञायक हूँ। लेकिन वह ज्ञायक जो क्षण-क्षणमें विकल्पोंके साथ एकत्वबुद्धि करके जो वर्तता है, एकत्व होकर परिणमन कर रहा है, उस एकत्वताको तोडता नहीं। इसलिये परिणति बदलता नहीं है। वह एकत्वता तोडनेका प्रयास करे तो प्रयास उसे हो सकता है। अभ्यासरूप हो सकता है। परन्तु सहज होनेमें तो उसे स्वानुभूति हो तो उसे अधिक सहज होता है। पहले वह एकत्वता तोडनेका अभ्यास कर सकता है।
... परिणति हो रही है, फिर उसे विचार करना पडता है कि यह एकत्व हो रहा है, मैं भिन्न हूँ, ऐसा विचार करना पडता है, प्रयास करना पडता है। सहज नहीं है न इसलिये। विचारपूर्वकका अभ्यास (होता है)। ... वह सहज काम करता है। उपयोग बाहर जाय तो भी परिणति जो सहज होती है वह कार्य करती रहती है।
मुमुक्षुः- पुुरुषार्थ तो प्रतिक्षण चलता रहता है।
समाधानः- चलता ही रहता है, प्रतिक्षण। जिस क्षण विकल्प आये उसी क्षण पुरुषार्थ चालू ही है।
मुमुक्षुः- अंतर स्वभावको पकडनेका कोई पुरुषार्थ?
समाधानः- जो सहज सम्यग्दर्शनके बादका है, वह तो उसे सहज ज्ञायक ग्रहण ही हो गया है। ज्ञायकरूप ही मैं हूँ, ज्ञायकरूप ही हूँ। ऐसी उसकी परिणति पुरुषार्थपूर्वक वर्तती ही है। और पहले जो है वह ज्ञायकको ग्रहण करनेका प्रयत्न है। उसने बुद्धिमें