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उग्रता होनेसे उसे स्वानुभूति भी ऐसे ही होती है। फिक्षर तो सहज धारा ही रहती है।
पहले तो उसे मात्र निर्णय होता है। उसकी सहज धारा नहीं होती। लेकिन निर्णय होता है कि इस ज्ञायकको ग्रहण करनेसे, इसकी उग्रता करनेसे, भेदज्ञान करनेसे अवश्य स्वानुभूति होती है। भेदज्ञानकी धारा उसे टिकती है, क्योंकि वह सहज नहीं है इसलिये। उसकी उग्रता करते-करते अवश्य स्वानुभूति होगी, ऐसा उसे निर्णय होता है। फिर तो उसकी सहज धारा (हो जाती है)। वह एकत्व होता ही नहीं। उपयोग बाहर जाय तो भी उसकी परिणति तो न्यारी ही रहती है। परिणति भिन्न ही रहती है।
मुमुक्षुः- उसे कोई भी उदयभाव आये तो भी शंका नहीं होती कि मेरा निर्णय बदल गया...?
उत्तरः- उसे शंका होती ही नहीं। उसकी सहज धारा भिन्न ही रहती है। शंका ही नहीं पडती। जिस क्षण विकल्प आये उसी क्षण उसे ज्ञायककी धारा रहती है। जिस क्षण.. फिर उसे याद नहीं करना पडता। जब वह विकल्प हो, उसी वक्त ज्ञायककी धारा (होती है)। उसी क्षण भिन्न होता है। अपना अस्तित्व जो ज्ञायकरूपसे ग्रहण हुआ, वह ज्ञायककी परिणति जोरदार (होती ही है)। उसके साथ एकमेक-तन्मय होता ही नहीं, न्यारा ही रहता है। विकल्प आये तो न्यारा रहकर ही आता है। कोई भी आवे। फिर तो याद भी नहीं करना पडता, सहज (होता है)। सहज अपना अस्तित्व ज्ञायककी परिणतिपूर्वक वह विकल्प होता है। वह भिन्न रहता है। उसे शंका नहीं पडती।
मुमुक्षुः- शरीरमें रोग आवे, प्रमाद हो जाय, उसके साथ उसे ऐसा नहीं हो जाता कि मेरे निर्णयमें कुछ फेरफार हो गया?
समाधानः- नहीं, उसे बिलकूल शंका नहीं पडती।
मुमुक्षुः- क्योंकि ऐसा तो बने कि शरीरमें रोग आवे तो उस ओर लक्ष्य जाय, प्रमाद भी हो जाय।
समाधानः- तो भी उसे ज्ञायककी धारा, अमुक जातका जो पुरुषार्थ सहज है, वह उसे मन्द होता ही नहीं। उसकी स्थिरतामें उसे विशेष कम हो, बाकी ज्ञायककी धारा, वह सहज धारा रहती ही है।
मुमुक्षुः- विचार करे तो ही रहे ऐसा कुछ नहीं?
समाधानः- विचार करे तो रहे ऐसा नहीं, सहजपने रहती है।
मुमुक्षुः- निर्णयवालेकी भी वह स्थिति होती है?
समाधानः- प्रथम भूमिकावालेको ऐसी सहज धारा नहीं होती। उसे निर्णय होता है। उसे याद भी करना पडे। उसे निर्णय है। धारा या अमुक अंशमें उसे शान्तिका वेदन हो, पहले उसे ऐसी सहज धारा नहीं होती। उसे याद करना पडता है। वैसा