Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-४)

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समाधानः- चटपटी लगे इसलिये उसे कषाय कम हो जाते हैं।

मुमुक्षुः- चटपटी लगानेके लिये भी प्रयत्न तो करना पडता है न?

समाधानः- चटपटी लगानेके लिये प्रयत्न करना पडता है। प्रयत्न करना चाहिये। अंतरमें जानेका प्रयत्न तो करना चाहिये। कषाय तो उसे सहज ही कम हो जाते हैं।

मुमुक्षुः- सहज ही कम हो जाते हैं? प्रयत्न ज्यादा नहीं करना पडे।

समाधानः- उसे रस ही नहीं रहता। जिसे आत्माकी ओर जानेका वैराग्य आ जाय, उसे ये सब रुचि, बाहरकी रुचि कम हो जाती है। रस कम हो जाता है।

मुमुक्षुः- .. उसे दृढता रहा करे कि मैं तो, चाहे जो भी उपयोग हो, कोई भी अवस्था हो, मैं तो ज्ञायक ही हूँ।

समाधानः- सर्व प्रथम तो बुद्धिपूर्वक निर्णय होता है। लेकिन उसे निर्णय ऐसा ही होता है कि यह यथार्थ निर्णय है और इसी प्रकारसे आगे जाया जाता है। ऐसी उसे अंतरमेंसे श्रद्धा हो जाती है। यह ज्ञायक है और इस ज्ञायकको ग्रहण करनेसे और उसमें तीव्रता करनेसे, उसकी उग्रता करनेसे अवश्य इसमेंसे आगे बढा जाता है। ऐसा उसे निर्णय आ जाता है। उसका वह निर्णय यथार्थ होता है। ज्ञायकके मूलमेंसे ही उसे स्वभाव ग्रहण होकर निर्णय होता है कि यही ज्ञायक है और ये सब पर है, यह विभाव है, यह स्वभाव है। और इस स्वभावको ग्रहण करनेसे अंतरमेंसे शान्ति प्रगट हो, अंतरमेंसे आनन्द आता है, ऐसा उसे यथार्थ निर्णय जोरदार होता है। और जहाँ उसका पुरुषार्थ उठता नहीं है, वह जानता है कि मेरा पुरुषार्थ नहीं है। लेकिन इस ज्ञायकको ग्रहण करनेसे, ज्ञाताधाराको उग्र करनेसे अवश्य इसमेंसे स्वानुभूति प्रगट होती है। ऐसा उसे जोरदार निर्णय होता है।

और उसके बाद भी, स्वानुभूतिके बाद भी उसे भेदज्ञानकी धारा चलती है। पहले तो उसे निर्णय होता है, परन्तु भेदज्ञानकी धारा उसकी सहज नहीं होती है। ज्ञायक ग्रहण हो और फिर छूट जाय, उसे ऐसी पुरुषार्थकी तीव्रता-मन्दता होती रहती है। परन्तु उसका निर्णय जोरदार होता है कि ऐसा पुरुषार्थ करनेसे, इस ज्ञायककी उग्रता करनेसे अवश्य इसी मार्गसे आगे बढा जाता है। उतना जोरदार निर्णय होता है। फिर तो उसकी ज्ञायककी धारा जोरदार रहती है। क्षण-क्षणमें कहीं भी उपयोग जाय, उपयोग बाहर जाय, अनेक जातके उसे विभावके विकल्प आये तो भी उसे ज्ञायककी धारा तो ज्ञायक उसे भिन्न ही, प्रतिक्षण भिन्न ही रहता है। बाहरमें कोई भी कार्य होता हो, अंतरमें कोई भी विकल्प आते हो तो भी उसे ज्ञायक उससे न्यारा, ज्ञायककी धाराकी परिणति भिन्न ही रहती है। खाते-पीते, चलते-फिरते कोई, कहीं भी सोते-जागते उसे भेदज्ञानकी धारा (चलती है)। एकत्व होता ही नहीं, ऐसी सहज धारा होती है। और सहज धाराकी