२०४ है, नहीं जाना उसका श्रद्धान गधेके सिंग बराबर है। ऐसा सब कहते हैं। नहीं जाना उसका श्रद्धान। तो गधेके सिंगके बराबर आदि कहते हैं, अर्थात वास्तविक अनुभूति वहाँ नहीं कहते हैं।
वहाँ तो कहते हैं, तेरा स्वभाव उस रूप परिणमता है। जो स्वभाव तेरा ज्ञायकरूप है जाननेवाला, उस रूप तू अनादिसे हो रहा है। अनुभवका अर्थ वहाँ उसका अनुसरण करके तू हो रहा है, उस रूप। ऐसा कहना चाहते हैं। अनुभूति अर्थात तू उस रूप हो (रहा है), तेरा स्वभाव उस रूप परिणमता है, तेरे स्वभावरूप तू अनादिसे हो रहा है। चेतन चेतनरूप परिणमता है। उसे तू पहिचान ले।
मुमुक्षुः- प्रश्न यह होता है कि अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा कहा, वह किसका विशेषण कहा?
समाधानः- विशेषण भले स्वयंका चैतन्यका है।
मुमुक्षुः- परन्तु जब ऐसा अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा अर्थात ज्ञायकभाव?
समाधानः- हाँ, ज्ञायकभाव।
मुमुक्षुः- आबालगोपाल सभीको सदाकाल अनुभवमें आ रहा है यानी स्वभाव तो ज्ञात हो रहा है। उपयोगात्मकका सवाल नहीं है।
समाधानः- उस रूप परिणति हो रही है। पारिणामिकभावरूप वह परिणमता है। आत्मा, ज्ञायक स्वयं।
मुमुक्षुः- परन्तु उस आनन्दकी अनुभूतिकी बात नहीं है। ऐसे नहीं लेना चाहिये।
समाधानः- आनन्दकी अनुभूति, वेदनकी अनुभूति नहीं है। नहीं तो फिर ऐसा क्यों आया कि नहीं जाना है उसका श्रद्धा गधेके सिंग बराबर है। अर्थात आचार्यको दूसरा कहनेकी अपेक्षा है। अनुभूति कहकर तू ज्ञायकरूप भगवान अनुभवमें आ रहा है। अर्थात उस स्वरूप तू सदाके लिये शाश्वत है। तेरा नाश नहीं हुआ है। तू तेरे स्वभावको टिका रहा है, ज्ञायकरूपसे। अतः तू है उसे पहिचान, ऐसा कहना है। उस स्वरूप ही तू है।
मुमुक्षुः- आत्माको उसका प्रतिभास हो रहा ऐसा कह सकते हैं?
समाधानः- प्रतिभास यानी तू उस रूप ही, ज्ञायक ज्ञायकरूपसे परिणमन कर रहा है। ज्ञायककी ज्ञायकता छूट नहीं गयी है, चेतनकी चेतनता छूट नहीं गयी है। ज्ञायकरूप तू भले विभावमें गया तो भी तेरी चेतनता ज्योंकी त्यों परिणमती है। सदाकाल परिणमती है। उस चेतनताको तू अन्दरसे पहिचान ले, ऐसा कहते हैं। गुरुदेवकी टेपमें अभी आया था, अनुभूति अर्थात उस रूप होना, उस स्वरूपरूप परिणमना।
मुमुक्षुः- होना।