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समाधानः- .. भले वचनोंसे, परन्तु पुरुषार्थ तो स्वयंको करना पडता है। गुरुदेवने जो बताया कि तेरा अस्तित्व ऐसा है। उस अस्तित्वको ग्रहण करनेके लिये पुरुषार्थ स्वयंको करना पडता है। वह क्षणिक अस्तित्व जो है, उतना क्षणिक अस्तित्व नहीं है। मेरा त्रिकाल अस्तित्व है। उसे ग्रहण तो स्वयं करता है। जानता है भले ज्ञानियोंके वचनसे जानता है, उसकी महिमा उसे आती है कि मेरा अस्तित्व भिन्न ही है, मेरे चैतन्यकी अदभुतता कोई अलग है, मेरी अनुपमता कुछ अलग है। वह सब ज्ञानियोंके वचनसे जानता है, उसका निर्णय करता है, परन्तु फिर ग्रहण करनेमें स्वयं पुरुषार्थ करता है। अपने पुरुषार्थसे होता है।
अनुभव कर सकता है, वह स्वयं जो ज्ञायकताको ग्रहण करके अंतरमें जाता है, वह पर्याय ग्रहण करती है। और उसमें स्वयं लीनता करे इसलिये उसकी अनुभूति होती है। उसे ग्रहण करे और उसमें लीनता करे तो अनुभूति होती है। ग्रहण करता है। ग्रहण करके उसमें लीनता करे। उसमें लीनता, ऐसी दृढ लीनता करे और उसकी उग्रता करे तो उसे स्वानुभूति होती है।
भले ज्ञानीके वचन हों, उसमें निमित्त होते हैं ज्ञानीके वचन। अनादि कालसे स्वयंने जाना नहीं है। ज्ञानीके वचन तो उसमें निमित्त होते हैं। अनादि कालसे स्वयंने जाना नहीं है, उसमें पहले तो उसे देव या गुरुके वचन सुनने मिले तो स्वयंकी अंतरमें तैयारी होती है। चैतन्यके कोई अपूर्व संस्कार, ऐसी देशना लब्दि प्रगट होती है। लेकिन ज्ञानियोंके वचन भले ही हैं, लेकिन अंतरसे तैयारी स्वयंको करनी पडती है। पुरुषार्थ स्वयंको करना है। ज्ञानियों जो कहते हैं, उसे स्वयं नक्की करता है। गुरुदेव जो कहते हैं, यह वस्तुका स्वरूप कोई अपूर्व मार्ग है। चैतन्य कोई अपूर्व है, अद्भुत है। वे जो कहते हैं उसका स्वयं अन्दरसे विश्वास करता है। स्वयं अंतरसे नक्की करता है कि यह बराबर है। ये जो मार्ग गुरुदेव कहते हैं, वैसा ही मार्ग होता है और ऐसा ही होता है। इस प्रकार स्वयं अपने ज्ञानसे पहले नक्की करता है। वह स्वयं निश्चय करके अंतरमें जाता है।
मुमुक्षुः- नक्की करता है अर्थात प्रतीति आ जाती है या निर्णय करना पडता