२२६ बहुत स्पष्ट है, बहुतोंको है, फिर भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं उसको ऐसा ही कोई स्वच्छन्द अपना होगा, ऐसा लगता है। मैं तो मेरी अपनी बात करता हूँ। ऐसा लगता है कि अभी भी ऐसा कुछ न कुछ (स्वच्छन्द चल रहा है)।
समाधानः- जो जिज्ञासु है वह अपनी ही क्षति खोजता है कि मेरी कहीं न कहीं क्षति है। इसलिये मेरा पुरुषार्थ उठता नहीं है। मेरी कहीं क्षति है। अपनी क्षति खोजनेवाला ही आगे बढ सकता है। दूसरेकी क्षति खोजनेवाला आगे नहीं बढ सकता। अपनी क्षति खोजे वही आगे बढता है।
मुमुक्षुः- दूसरा कुछ मत खोज, बीजुं काँई शोधीश नहीं, मात्र एक सत्पुरुषको खोज और उनके चरणकमलमें सर्व भाव अर्पण करके प्रवृत्ति करता रह। सर्व भाव अर्पण करके प्रवृत्ति करता रह। सर्व भाव यानी? सर्व अर्पणता? सर्व प्रकारकी।
समाधानः- सर्व प्रकारकी अर्पणता। गुरु जो कहते हैं वह सब अर्पणता। उसमें बीचमें अपनी कल्पना, बीचमें अपनी कोई होशियारी नहीं। गुरु कहते हैं वह सब अर्पणता। अपनी होशियारी या अपनी मति कल्पनासे कुछ नक्की नहीं करना, गुरु जो कहे वैसे। अपने सर्व भाव अर्पण। जो कहे वह उसे मान्य है। मुझे समझमें नहीं आता है। स्वयं समझनेका प्रयत्न करता है। बाकी जो गुरु कहते हैं वह बराबर है। मेरी अपनी कचास है। श्रीमद तो वहाँ तक कहते हैं न, गुरुको सर्व भाव अर्पण कर दे, फिर मुक्ति न मिले तो मेरे पाससे ले जाना। ऐसा कहते हैैं।
मुमुक्षुः- इसके बातका वाक्य है।
मुमुक्षुः- वह बराबर है?
समाधानः- मेरे पासेसे ले जाना, उसका अर्थ यह है कि तुझे मुक्ति मिलेगी ही। सर्व भाव अर्पण कर दे अर्थात तू ज्ञाता हो जा, इसलिये तुझे मुक्ति मिलेगी ही। सर्व भाव अर्पण कर। कोई भाव नहीं, सबका स्वामीत्व छोड दे, सब गुरुको अर्पण। इसलिये तुझे स्वयंको भेदज्ञान हो जायगा। तू स्वयं ज्ञाता हो जायगा, मुक्ति मिलेगी ही। मेरे पाससे ले जाना, उसका अर्थ ही यह है कि तुझे मिलेगी ही। निश्चित कहते हैं।
मुमुक्षुः- .. फिर भी ऐसा तो लगता है कि कुछ न कुछ कचास अभी भी रहती है।
समाधानः- कहीं न कहीं अपनी कचास है। देर लगे, उसमें अपने प्रमादका कारण हो, कहीं रुकता हो वह कारण हो, अपनी समझमें कचास हो, अनेक जातकी कचास होती है। बहुमानकी, अनेक प्रकारकी कचास होती है। गुरुकी अर्पणताकी, समझकी, पुरुषार्थकी, अनेक प्रकारकी कचास (होती है)।