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समाधानः- उस जातकी तैयारी, अंदरसे बहुमान, भक्तिवालेको हो जाता है। उसमें कुछ आशय होगा, उसमें कुछ हित होगा, ऐसा अर्थ ग्रहण करता है। ऐसा दिखता होनेके बावजूद ऐसा कहते हैं, उसमें कुछ हित या आशय गुरुका है, इस तरह स्वयं ग्रहण करता है। उसमें कुछ मेरे हितके लिये अथवा कुछ आशय है, ऐसा अर्थ ग्रहण करता है।
मुमुक्षुः- जैन दर्शनमें गुरु-शिष्यका ऐसा ही मेल होगा?
समाधानः- ऐसा ही होता है। जिनकी परिणति साधकताकी ओर गयी, जो मुक्तिके मार्ग पर गुरु परिणमते हैं, उनके जो कार्य है वह सब लाभरूप और हितरूप ही है। ऐसे शिष्यको अर्पणता आ जाती है।
मुमुक्षुः- .. स्वच्छन्दमें जाता है?
समाधानः- वह सब स्वच्छन्दमें जाता है। अपनी कचास है।
मुमुक्षुः- तबतक तत्त्व प्राप्त नहीं कर सकता?
समाधानः- मुश्किल है।
मुमुक्षुः- तो भी कार्यकारी नहीं होता?
समाधानः- धारणाज्ञानसे नहीं लेकिन अंतर बहुमान और रुचिसे आगे बढा जाता है। प्रयोजनभूत तत्त्व ग्रहण करे, लेकिन अन्दर बहुमान और रुचि हो तो वह आगे बढता है।
मुमुक्षुः- बाहरमें ज्ञानीके प्रति बहुमान और अंतरमें आत्माकी रुचि।
समाधानः- ज्ञानीके प्रति बहुमान और अंतरमें तत्त्वकी रुचि। इन दोनोंका सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- एक हो वहाँ अविनाभावी दूसरा हो ही। आत्माकी रुचि हो उसे ज्ञानीके प्रति बहुमान होता ही है।
समाधानः- अंतरकी रुचि हो उसे ज्ञानीके प्रति बहुमान होता ही है। ऐसा सम्बन्ध है। अंतरकी रुचि हो और गुरुके प्रति बहुमान न हो, ऐसा नहीं बनता। तो उसकी रुचिमें कचास है। तो अपनी बुद्धि-कल्पनासे सब नक्की करता है, उसमें उसकी रुचिकी कचास है। जिसे प्राप्त करनेकी रुचि है, उसमें गुुरु क्या कहते हैं? गुरु प्रति अर्पणता साथमें होती ही है। मैं जान नहीं सकता हूँ, मैं जिस मार्ग पर जा रहा हूँ, वह मार्ग मुझे प्रगट नहीं है, जिन्होंने प्रगट किया उन पर अर्पणता (होती है) और वे क्या कहते हैं? उस प्रकारका विनय और भक्ति उसके हृदयमें होते ही हैं। स्वयं जान नहीं सकता है और जिन्होंने जाना है उनके प्रति बहुमान नहीं है तो उसमें उस जातकी कचास है।
मुमुक्षुः- गुरुदेवके शिष्योंमें तो बहुभाग ऐसा ही लगता है कि धारणाज्ञान तो