२३० हैं, कुछ साररूप नहीं है। वह तो वृथा है। वह कोई अपनी इच्छानुसार होता नहीं है, फिर भी उस ओर दोडा जाता है। उसकी मेहनत करनेमें, उसकी व्यवस्था करनेमें वह बाह्यमें (दोडता है)। लेकिन स्वयं अपना कर सकता है। और वही साररूप, सुखरूप, आनन्दरूप और शान्तिरूप (है)। जो अंतरसे शान्ति प्रगट होती है वह सदाके लिये प्रगट होती है।
ये बाहरका तो सब क्षणिक है। अपनी इच्छाकी बात भी नहीं है, वह तो परद्रव्य है। इसलिये अपनेमें ही सुख और शान्ति है, ऐसा निर्णय करके अपनी ओर जाय तो जा सकता है। लेकिन वह अपनी लगनसे जा सकता है। एक दिशा बाह्यकी और एक दिशा अंतरमें है। पलटना अपने हाथकी बात है। ज्ञायककी ज्ञायकरूप परिणति कैसे करनी वह अपने पुरुषार्थकी-हाथकी बात है। परद्रव्यकी ओर जाय वह तो अनादिका अभ्यास है इसलिये जाता है।
मुमुक्षुः- वास्तवमें उसे पर-ओर जानेकी कोई आवश्यकता नहीं है, कोई कारण भी नहीं है।
समाधानः- अनादि अभ्यासके कारण उस जातका राग है, अतः रागके कारण जाता है। .. हो कि मेरेमें ही सब सर्वस्व है, तो अपनी ओर आ जाय। और नक्की किया उस अनुसार पुरुषार्थ प्रगट हो तो ही वह अपनी ओर आता है।
मुमुक्षुः- विश्वास आना चाहिये।
समाधानः- अपनी स्वभाव जातिमें ही सब है। ये विभावकी जात है, किसी भी जातका मेरा स्वभाव उसमेंसे नहीं प्रगट होगा, वह तो विभावजात है, विलक्षण है। मेरे स्वभावकी जात नहीं है, दुःखरूप है। उसमेंसे नहीं प्रगट होगा, लेकिन मेरे स्वभावकी जो जात है, उस जातमेंसे ही मेरी जो जात है वह प्रगट होनेवाली है। उसमेंसेही-स्वभावमेंसे ही स्वभाव आयेगा। विभावमेंसे नहीं आयेगा। इतनी उसे प्रतीति आये तो ही अपनी ओर पुरुषार्थ करता है।
... अपने स्वभावमेंसे आता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र सब अपनेमें ही है, अपनेमें से प्रगट होता है। बाहरके साधन होते हैं, लेकिन वह स्वयं प्रगट होता है अन्दर स्वभावमेंसे अभ्यास करनेसे प्रगट होता है। निश्चय साधन स्वयं अपना ही होता है।
.. अंतरमें जो तत्त्व है उसमेंसे प्रगट होगा। अनादिका अनजाना मार्ग है, गुरु मार्ग दर्शाते हैं। वह मार्ग गुरुदेवने बताया है कि तेरा तत्त्व भिन्न है, तेरे द्रव्य-गुण-पर्याय तेरेमें, बाहरमें नहीं है। तेरे कर्ता, क्रिया, कर्म तेरेमें, सब तेरेमें है। गुरुदेवने यह मार्ग बताया। अनादिका परका अभ्यास हो रहा है। मार्ग गुरु दर्शाते हैं, लेकिन करना तो स्वयंको पडता है। समझना, प्रतीत करना सब स्वयंको करना है। अनजाना मार्ग अपने