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आप अपना स्वभाव पहिचानना सब कठिन पडता है। मार्ग बतानेवाले गुरु मिले तब अंतरमेंसे स्वयंको ग्रहण होता है, ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- गुरुकी ओरसे नजर वापस मोडनी, ऐसा गुरु कहना चाहते हैं?
समाधानः- गुरु ऐसा कहते हैं कि तू स्वतंत्र तुझमें देख, ऐसा कहते हैं। तेरी दृष्टि बदल। तू स्वतंत्र है। तू अपनेआप तेरी ओर दृष्टि कर। गुरु ऐसा कहते हैं। लेकिन आगे जानेवालेको ऐसा भक्तिभाव आता है कि गुरु आपने ही मार्ग दर्शाया है। दृष्टि अपनी ओर करता है, उपादान अपना है, लेकिन उसे ऐसी भक्ति आये बिना नहीं रहती।
(गुरुने) दिशा बतायी, गुरुने आत्मा बताया, गुरुने सब स्वतंत्रता (बतायी), सब गुरुदेवने बताया। स्वानुभूतिका मार्ग बताया, निर्विकल्प दशा प्रगट हो तब मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। ऐसे इस आत्माकी स्वानुभूति हो, वेदन हो, सब गुरुने बताया। करना स्वयंको पडता है। होता है उपादानसे, मार्ग गुरु बताते हैं। ऐसे पंचमकालमें गुरुदेव मिले तो उन्होंने ऐसा मार्ग बताया।
मुमुक्षुः- वचनामृतमें आता है कि गुरु बताते हैं, लेकिन दे नहीं देते।
समाधानः- करना स्वयंको है। उसका बारंबार अभ्यास, दृष्टिको पलटनी, दृष्टि चैतन्य पर स्थिर करनी कि यह मैं चैतन्य ही हूँ, यह विभाव मैं नहीं हूँ। बीचमें जो अल्प अस्थिरता रहती है, वह खडी रहती है, एकत्वबुद्धि टूट जाती है। भेदज्ञान हो जाय और चैतन्य पर दृष्टि होती है।
न्यूनता है इसलिये देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आदि सब साथमें रहता है। दृष्टि पलट जाती है। उसकी परिणतिकी पूरी दिशा पलट जाती है। जो परिणति एकत्वबुद्धिमें जाती थी, वह परिणति-भेदज्ञानकी परिणति चैतन्य पर एकत्वरूप दृष्टि करके परिणति पलट जाती है।
मुमुक्षुः- मैं चैतन्य हूँ, ऐसे जीने लगता है।
समाधानः- उसका पूरा जीवन पलट जाता है। विभाव पर दृष्टि मत करना, विभावको मत देखना, शरीरको मत देखना, एक चैतन्यकी ओर दृष्टि (करके) चैतन्यको देखता है। ज्ञान सब होता है कि यह शरीर, विभाव आदि जब तक खडा है, तो उसे ख्यालमें है। लेकिन वह कहीं नजर करके अपने स्वभावको-चैतन्यको दृष्टि देखती है। चैतन्य पर दृष्टिको स्थापित करता है। उसकी जीवनकी पूरी गति बदल जाती है।
मुमुक्षुः- अकेले चैतन्यको देखनेका उसे उल्लास है।
समाधानः- परिणति बस, चैतन्यकी ओर चली जाती है।
मुमुक्षुः- अनुभवमें आता है, ऐसा कहनेमें आता है। पीछली बार अपनी बात