Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-४)

२३२ हुयी थी कि स्वभाव तो ऐसा है कि गुप्त नहीं है। अपनी जातको..

समाधानः- उसे वास्तविक वेदन हो गया है ऐसा तो नहीं है। लेकिन उसका स्वरूप है, उसके ज्ञानस्वभावरूप वह स्वयं परिणमन कर रहा है। ज्ञानस्वभावरूप। वह जैसा है वैसा अनुभूतिमें आ रहा है और उस रूप हो रहा है। उस रूप परिणमन कर रहा है। उसके स्वभावरूप अर्थात उसे प्रगट वेदन है ऐसा अर्थ नहीं है। उस रूप स्वयं परिणमन कर रहा है, उसका जो स्वभाव है उस रूप। क्योंकि बादमें तो ऐसा कहते हैं न कि ऐसा होने पर भी उसे प्रतीतमें आता नहीं, नहीं जाने हुएका श्रद्धान गधेके सींगके बराबर है। आचार्यको वहाँ प्रगट अनुभूति तो कहना नहीं है। लेकिन जो अपने स्वभावका अस्तित्व है, ज्ञायक स्वभाव है उस रूप स्वयं हो रहा है। उस रूप परिणमन कर रहा है। जैसा है वैसा। लेकिन स्वयं उसकी प्रतीत करता नहीं, ज्ञान करता नहीं। तू अपने रूप है, आचार्यदेव करुणा करते हैं कि तू तेरे रूप है। तू तेरे रूप हो रहा है, लेकिन तू तुझे देखता नहीं, उसका वेदन नहीं करता है। तू तेरे रूप परिणमन कर रहा है। लेकिन तू तुझे देखता नहीं। ऐसा अनादिअनन्त जैसा है वैसा तू अनुभवमें आ रहा है। अनुभूतिका अर्थ प्रगट वेदन नहीं है। लेकिन उस रूप हो रहा है, अपने स्वभावरूप।

मुमुक्षुः- अस्तित्व मात्र उतना ही या दशाके दृष्टिकोणसे दशामें गुप्त संवेदन है, ऐसा कुछ कहना है?

समाधानः- नहीं, नहीं। गुप्त संवेदन नहीं है। वेदन नहीं है, संवेदन नहीं है। लेकिन उसका स्वभाव उस रूप परिणमन कर रहा है। उस रूप जो स्वभाव है, उस रूप वह है, उसका अस्तित्व है। वेदन हो रहा है, ऐसे वेदनके अर्थमें नहीं है। उस रूप परिणमता है। वेदन प्रगट वेदनके अर्थमें नहीं है। वह कोई जड नहीं है। उस रूप, तेरे स्वभावरूप, तेरे ज्ञानस्वभावरूप तू अनुभवमें आ रहा है और उस रूप तू हो रहा है। उस रूप तू है, ऐसे।

अनुभूतिका अर्थ ही ऐसा है कि उस रूप होना, उस रूप परिणमना, जैसा स्वभाव है वैसे। प्रगट वेदन (नहीं है)। उसका अस्तित्व उस रूप परिणमन कर रहा है। ज्ञायक स्वभावका अस्तित्व है, ऐसा कहनेका आशय है। अस्तित्व उस रूप परिणमन कर रहा है। प्रतिभास, उसे प्रतिभास नहीं है। ज्ञान ज्ञानरूप है, ज्ञान ज्ञानरूप है, लेकिन उसे उसकी प्रतीत नहीं है, अनुभूति नहीं है। अनुभूति, प्रगट अनुभूति-वेदन नहीं है उस अपेक्षासे। वेदनकी अनुभूति नहीं है, लेकिन उसका स्वभाव स्वभावरूप अनादिअनन्त है, जैसा है वैसा अनादिअनन्त है। ज्ञानस्वभाव है, ज्ञानस्वभाव ज्ञानस्वभावरूप परिणमन कर रहा है। उसकी उसे महिमा नहीं आती है। ज्ञान ज्ञानस्वभावरूप (परिणमता है)।