११२ चालू रहता है। लेकिन वह सब समझता है कि ये सब रागकी दशा है, उससे भिन्न ही भिन्न रहता है। उसे अल्प-अल्प (राग) होता है, परन्तु वह छूटनेके लिये है। स्वयं पुरुषार्थ करके लीनता बढाता जाये तो छूट जाता है। लेकिन पूर्ण तो जब केवलज्ञान होता है, मुनिदशा हो, अंतरमें मुनिदशा कैसी? बाहरसे ले ले ऐसे नहीं, अंतरमें स्वानुभूति बढ जाये। ऐसी बढ जाये कि बाहर रह नहीं सके। अंतर्मुहूर्त में आये, क्षण-क्षणमें बार-बार अन्दर जाता है, फिरसे अन्दर जाता है। ऐसी स्वानुभूति आनन्दकी लीनता होती है तब उसे केवलज्ञान होता है। उसे पूर्ण दशा कहते हैं। तब तक उसे पूर्ण है, लेकिन वह शक्तिमें पूर्ण है। शक्तिमें है तो प्रगट होता है। पानी स्वभावसे निर्मल है। लेकिन वह वर्तमान कीचडसे मलिन हुआ, लेकिन निर्मल औषधिसे निर्मल होता है। स्वभावसे-शक्तिसे आत्मा पूर्ण है। परन्तु उसे वेदन नहीं है, प्रगटता नहीं है, वेदन नहीं है, पूर्णताका।
... श्रद्धा, भावना, प्रयाससे अभी अंश प्रगट होता है और वह गृहस्थाश्रममें होता है। लेकिन उसमें बहुत आगे बढ जाये तब उसे एकदम ऐसी स्वानुभूति अंतर्मुहूर्त- अंतर्मुहूर्तमें आनन्दकी अनुभूति होती है, क्षण-क्षणमें होती है। फिर वह गृहस्थाश्रममें रह नहीं सकता। फिर मुनिदशा आ जाती है और फिर कोई उस भवमें, कोई दूसरे भवमें ऐसी आनन्दकी अनुभूति बढ जाती है, फिर पूर्ण केवलज्ञान होता है। फिर बाहर ही नहीं आता, अन्दर गया सो गया, स्वरूपमें समाये तो समा गये, फिर बाहर ही नहीं आते। फिर ऐसी वीतरागदशा हुई, रागका अंश उत्पन्न ही नहीं होता।
मैं ज्ञायक हूँ, मैं स्वभावसे पूर्ण हूँ, परन्तु अभी प्रगट नहीं है। रागका वेदन है। मैं भिन्न ज्ञायक हूँ, इसप्रकार रागसे भिन्न होते-होते, भेदज्ञान करते-करते उसे स्वानुभूतिकी दशा हो, तब उसे मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। .. पहले होता है, पूर्णता बादमें होती है।