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वैसे चैतन्य स्वभावसे स्फटिक जैसा निर्मल है। इसलिये उसमें किसी भी प्रकारका अंतरमें मूल तत्त्वमें किसी भी मलिनताने प्रवेश नहीं किया है। इसलिये अपूर्ण उसे पर्याय अपेक्षासे कहते हैं। शक्ति अपेक्षासे उसमें केवलज्ञानकी शक्ति भरी है। स्फटिक जैसे स्वभावसे निर्मल है, उसकी निर्मलताका कोई भी प्रकार शक्तिमें नाश नहीं हुआ है। स्फटिकमें किसी भी प्रकारकी अपूर्णता उसकी शक्तिमें नहीं है।
वैसे ज्ञायकमें किसी भी प्रकारकी अपूर्णता उसकी शक्तिमें नहीं है, परन्तु प्रगट वेदनमें नहीं है। जैसे स्फटिकमें प्रगटमें लाल दिखाई देता है, वैसे आत्मा शक्तिमें परिपूर्ण है, उसका कोई अंश मलिन नहीं हुआ है, लेकिन प्रगटमें उसके वेदनमें अपूर्णता है। उसे स्वानुभूतिकी लीनताका अंश (होता है)। सम्यग्दर्शन होता है तो आंशिक स्वानुभूति होती है। विकल्पसे छूटकर क्षणभर स्वयं स्वानुभूति प्रगट होती है। जिसे सम्यग्दर्शन होता है उसे स्वानुभूति निर्विकल्प दशामें आनन्दकी अनुभूति होती है। लेकिन उसे थोडी देर रहती है और फिरसे बाहर आता है।
ऐसे भेदज्ञान करते-करते, ज्ञायककी उग्रता करते-करते उसकी साधना बढती जाये और पर्यायमें निर्मलता बढती जाये, तब उसे पर्यायमें केवलज्ञानकी प्राप्ति पूर्ण होती है। स्फटिककी लाली निकल जानेपर स्फिटक प्रगट निर्मल होता है। वैसे शक्ति निर्मल है स्फटिक जैसा, परन्तु प्रगटमें उसे निर्मलताका वेदन नहीं है। इसप्रकार बारंबार स्वयं ज्ञायकको पहचानकर उसमें लीनता करता रहे तो पहले स्वानुभूति आंशिकरूपसे होती है। अभी केवलज्ञान लोकालोकको जाने वैसा केवलज्ञान नहीं हो जाता। लोकालोकका केवलज्ञान वीतरागदशा एकदम हो जाये, फिर रागका अंश भी उत्पन्न नहीं हो, रागका अंश कहाँ चला गया, था कि नहीं ऐसा हो जाये, तब वह स्वयंको पूर्ण प्रकाशित करे और अन्यको प्रकाशित करे ऐसा ज्ञान होता है। स्वानुभूतिमें वह नहीं होता। स्वभाव पूर्ण है, अभी साधना है। इसलिये निर्विकल्प दशा होती है उस वक्त स्वानुभूति, आनन्दकी अनुभूति होती है। लेकिन वह थोडी देर रहकर फिरसे आता है। तो भी मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसी धारा उसे चलती है।
इसप्रकार बारंबार अनुभूति होते-होते उसे चारित्रदशा होती है। अंतरमें लीनता बढती जाती है, मुनिदशा होती है और बादमें उसे पूर्णता होती है। फिर क्षण-क्षणमें स्वरूपमें ऐसा लीन होता है कि उसमें ऐसा लीन हो जाये कि फिर बाहर ही नहीं आये। ऐसी लीनता हो तब उसे केवलज्ञान होता है। तब अनन्त गुणसे सब प्रगट पूर्ण हो जाता है। तब पूर्णता होती है।
पहले पूर्णकी श्रद्धा होती है। और स्वानुभूति, पहले निर्विकल्प दशा होती है, उसमें स्वानुभूति-आनन्दकी अनुभूती होती है। लेकिन फिरसे बाहर आ जाता है। फिर भेदज्ञान