११० समझकर प्रमाद हो जाये, रुचिकी मन्दता हो जाये, वह सब स्वयं ही जान सकता है। रुचिकी मन्दता, प्रयत्नकी मन्दता, वह सब साथमें है।
मेरेमें गुणोंका भेद लक्षणभेदसे है, वस्तुभेद नहीं है। उसके अनन्त गुण हैं, परन्तु वस्तु तो एक ही है। अनन्त गुणसे भरा मैं चैतन्य हूँ। ऐसा अखण्ड द्रव्य है। उस पर दृष्टि करे, यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ। इसप्रकार बारंबार दृढता करता रहे। बारंबार दृढता करे। मैं यह हूँ और यह नहीं हूँ, एक-दो बार याद किया, फिर भूल जाये, फिर जैसा था वैसा हो जाये। रुचि तो अमुक .... करता है, लेकिन रुचिकी उग्रता हो, लगनी उग्र हो तो वह आगे बढ सकता है। मुझे आत्माके बिना कहीं चैन नहीं है, ऐसी उग्रता अन्दर होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- ऐसी उग्रता..
समाधानः- उसप्रकारकी उग्रता होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- उसका नाम रुचिको बढाते जाना।
समाधानः- हाँ, रुचिको बढाते जाना, यही उसका अर्थ हुआ। अमुक प्रकारकी रुचि तो होती है। अमुक नक्की किया हो कि यह करने जैसा है, उस प्रकारकी जिज्ञासा तो उसे होती है। प्रयत्न उस ओर नहीं जाता है, इसलिये थोडी रुचिकी मन्दता होती है। जिसे ज्ञायककी दशा प्रगट हुयी, उसे तो एकरूप प्रतीति रहती है। फिर उसे आचरणमें आचरण विशेष नहीं होता है, इसलिये वह बाहर खडा है।
मुमुक्षुः- उसके पहले रुचिमें कम-ज्यादा, मन्द-तीव्र होता रहता है।
समाधानः- यथार्थ प्रगट नहीं हुआ है इसलिये।
मुमुक्षुः- पूर्ण स्वरूपकी समझ नहीं हुई है और उस ओर रुचि ज्यादासे ज्यादा हो, अभी भी अपूर्ण हूँ, इसलिये थोडे मन्द कषाय हैं, पूर्णरूपसे प्राप्त नहीं हुआ है, इसलिये ये थोडे-बहुत बाकी है और वह तो नाश होनेके लिये है, ऐसी समझ होनी चाहिये न? जितना भी मन्द कषाय है वह तो नाश होनेके लिये है। समझ हुयी तो उसकी उग्रता बढने पर...
समाधानः- पूर्ण पर्याय प्रगट हो, पूर्ण पर्याय प्रगट हो तो वह छूट जानेवाला है। परन्तु अन्दर अपूर्णता (है)। द्रव्य वस्तु स्वभावसे पूर्ण है, वस्तुमें पूर्णता है, लेकिन उसकी पर्यायमें अपूर्णता है। वस्तु शक्तिमें जो है, शक्ति स्वरूप आत्मामें बाहरके विभावने अन्दर प्रवेश नहीं किया है। जैसे स्फटिक स्वभावसे निर्मल है, लेकिन उसे बाहरके फूल लाल-पीले हो तो उसके कारण उसमें मलिनता दिखती है। मलिनतारूप उसका अमुक प्रकारका परिणमन होता है, कोई करवाता नहीं। स्फटिक वर्तमान लाल-पीले स्वरूप परिणमता है। परन्तु मूलमें जो स्फटिककी निर्मलता है, वह नाश नहीं हुयी है।