Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

११४ हो, वह स्वयं ही अंतरसे स्फुरित होती है। ऐसे शुभभाव हो, ऐसा पुण्य बन्धे कि देव-गुरु-शास्त्रके सान्निध्यमें (जाये)। अन्दरसे स्वयंकी रुचि जागृत हो जाये कि मुझे तो यही चाहिये, मुझे और कुछ नहीं चाहिये।

मुमुक्षुः- ऐसा सब होनेका कारण पूर्वके संस्कार?

समाधानः- पूर्वके संस्कार (कारण) है। उसे द्रव्यदृष्टिसे नहीं कहनेमें आता, लेकिन ऐसे एक जातके संस्कार पडते हैं। अमुक जातके जो विभावके संस्कार चले आ रहे हैं, पूर्वमें जो होते हैं, फिरसे जो भव धारण करे उसमें उस जातके संस्कार, उस जातके शुभभाव, कषाय आदि सब होते हैं, ऐसा दिखनमें आता है। इसप्रकार अंतरमें जो स्वयंकी रुचि हो, वह रुचि उसे जागृत होनेका कारण होती है। फिर उसे बढानेके लिये स्वयंका वर्तमान पुरुषार्थ काम करता है। ज्यादा कार्य करनेके लिये।

मुमुक्षुः- वर्तमानमें जिसे सुख ही नहीं है, उसे..

समाधानः- किसीको पूर्वके संस्कार हो तो .. किसीको नहीं भी हो। वर्तमान जीवकी ऐसी कोई योग्यताके कारण बैठ जाये। वैसी उसकी योग्यता, कोई प्रकारकी कोमलता लेकर आया हो उसे बैठ जाता है। बाकी किसीको संस्कार होता है और किसीको नहीं भी हो। सभीको संस्कार ही हो, ऐसा नहीं होता। तो-तो जीवको पहली बार हो तो उसे पहलेके संस्कार.. निगोदमेंसे निकलकर पहली बार होता है। संस्कार ही हो, ऐसा नहीं होता। लेकिन किसीको संस्कार होते हैं, किसीको संस्कार नहीं होते।

स्वयं वर्तमानमें तैयारी करे कि मुझे आत्मा ही चाहिये। बारंबार उसका रटन, लगनी, जिज्ञासा, विचार, उसीके विचार, वांचन आत्माके लिये करता हो। ध्येय एक आत्माका, आत्माका प्रयोजन होता है, दूसरा कोई प्रयोजन नहीं होता। बाहरका किसी भी प्रकारका प्रयोजन नहीं है। सबकुछ आत्मार्थके लिये है। अंतरसे ऐसा हो तो उसे संस्कार (पडते हैं)। उसके आत्माको वही रुचे, वही पोसाय, दूसरा कुछ अंतरसे नहीं रुचे, दूसरा कुछ पोसाता नहीं, ऐसा आत्माका जीवन हो जाये कि दूसरा कुछ पोसाय नहीं। एक सतकी रुचि, एक सत आत्मा कैसे प्राप्त हो? ऐसा उसे पोसाता हो तो उसे दूसरे भवमें भी वह संस्कार स्फुरित हुए बिना नहीं रहते। ऐसा होना चाहिये। उसे वही पोसाय, दूसरा कुछ नहीं, दूसरा कुछ अंतरमें रुचे नहीं। अंतरमें उस जातकी रुचि और लगनी हो तो वह संस्कार उसे रहते हैं और स्फुरायमान भी होते हैं।

मुमुक्षुः- वह संस्कार स्फुरे बिना नहीं रहे।

समाधानः- स्फुरे बिना नहीं रहते। स्फुरे यानी उसे ऐसा लगे, कहीं भी रस नहीं आये। आत्माकी बातमें ही रस आये। ऐसा अंतरमेंसे उस जातका हो जाता है। सहज ही स्वयं ऐसा रटन वह लेकर आया है, घूटन करके आया है।