०२१
मुमुक्षुः- ... नहीं हो तो संस्कार पडे तो भी उसे..
समाधानः- तो भी अच्छा है। सम्यग्दर्शन जितना पुरुषार्थ हो जाये तो उत्तम है, लेकिन नहीं हो तो उसकी बारंबार लगनी लगाता हो, उसीका रटन करता हो, संस्कार पडे तो भी अच्छा है। "तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता।' वार्ता भी अंतरकी प्रीतिसे सुनी है तो भावि निर्वाण भाजनं। उसमें उसकी अंतरकी प्रीति, अन्दरकी रुचि और प्रीति ही काम करती है। भविष्यमें वह उसे स्फुरे बिना नहीं रहती। परिणति प्रगट हुए बिना नहीं रहती। अंतरकी प्रीतिसे बात सुनी है और अपूर्वता लगी है तो अंतरसे लगी अपूर्वता फिर जाती नहीं। आये बिना नहीं रहती।
देशनालब्धि होती है, वह उसे कहाँ.. होता नहीं। भगवानकी वाणी या गुरुदेवकी वाणी सुनकर अंतरमेंसे कोई अपूर्वता लगी और अंतरमेंसे आत्मा कुछ अलग है और ये कुछ अलग ही कहते हैं, ऐसी देशना अंतरमें ग्रहण हो गयी तो वह देशना भी काम करती है, स्वयंको कुछ मालूम नहीं होता। वह सब संस्कार ही काम करते हैं। द्रव्यदृष्टिसे उसे नहीं कहनेमें आता, फिर भी निश्चय-व्यवहारकी संधि है। वैसे वह संस्कार भी है। देशनालब्धि अंतरमें होती है, वह भी प्रगट होती है। उस वक्त उसे मालूम नहीं होता, अप्रगटरूपसे अपूर्वता लगती है। अंतरमें जो परिणति मुडी है वह अप्रगट है। ये कुछ अलग अपूर्व है। अपूर्वताका पोषण अन्दरसे हो गया, वह उसे आये बिना नहीं रहता।
मुमुक्षुः- संस्कारसे मिथ्यात्व गलता होगा?
समाधानः- मिथ्यात्वका रस, दर्शनमोहनीय मन्द पडता है। दर्शनमोहनीय तो मन्द है। लेकिन दर्शनमोहनीय चला नहीं जाता। वह तो दर्शनमोहनीयकी मन्दता है। मिथ्यात्वका रस मन्द पडता है। अपनी ओरकी अपूर्वता लगती है तो। सच्चे देव-गुरु-शास्त्रको ग्रहण करता है तो भी दर्शनमोहनीय मन्द है। परन्तु अन्दर आत्माकी अपूर्वता लगे, उस पूर्वक जो दर्शनमोहनीय मन्द पडता है, वह अलग रीतसे पडता है। जो जूठे देव-गुरु-शास्त्रको ग्रहण करे, उससे तो जो सच्चे देव-गुरु-शास्त्रको ग्रहण करता है, उसका दर्शनमोहनीय मन्द है। परन्तु अन्दरसे अपूर्वता लगकर ग्रहण हो, वह दर्शनमोहनीय अलग प्रकारसे (मन्द) पडता है। अब आत्माकी ओर ही मुडेगा।
मुमुक्षुः- अन्दरकी भक्ति आदि ... करते हुए, आत्माकी ओरके मुडे जो संस्कार हैं, उसमें मिथ्यात्वका ज्यादा गलना होता है?
समाधानः- वह अलग प्रकारसे (होता है)। देव-गुरु-शास्त्रकी श्रद्धा भी ऐसी हो, अपूर्व रीतसे हो तो उसमें भी दर्शनमोहनीय अलग रीतसे मन्द पडता है। देव-गुरु- शास्त्रकी श्रद्धा भी उसे अपूर्व प्रकारसे (होती है)। ये गुरु कुछ अलग कहते हैं, देव