Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

११६ कुछ (अलग है), शास्त्रमें कुछ अलग आता है, इसप्रकार अलग रीतसे ग्रहण हुआ तो वह अलग रीतसे ही है। लेकिन रूढिगतरूपसे ग्रहण हुआ हो वह अलग है। अन्दर अपूर्व रीतसे देव-गुरु-शास्त्रकी श्रद्धा ग्रहण हो, अपूर्व रीतसे, तो उसमें दर्शनमोहनीय मन्द पडता है। अब, अपनी ओर ही उसकी परिणति आयेगी, उस प्रकारसे मन्द पडता है।

मुमुक्षुः- माताजी! देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति और आत्माकी ओर वृत्ति, उसका मेल है?

समाधानः- हाँ, मेल है। आत्माकी भक्ति, ज्ञायककी भक्ति उसे शुभभावमें देव- गुरु-शास्त्रकी भक्ति भी साथमें ही होती है। दोनोंका मेल है। ज्ञायककी भक्ति हो तो देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति नहीं होती, ऐसा नहीं होता। जिसे ज्ञायककी भक्ति हो उसे देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति, शुभभाव होता है। अशुभभाव छूटकर, अशुभभावसे शुभभावमें आता है। अशुभभावका नाश नहीं होता। लेकिन वह शुभभावमें खडा रहता है। साथमें भक्ति आये बिना नहीं रहती।

ज्ञायककी रुचि हुयी। ज्ञायककी यथार्थ श्रद्धा होती है उसे भी देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति (होती है)। सम्यग्दर्शन हो, भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो, स्वानुभूति हो तो भी उसे बाहर आये तब देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति होती है। तो रुचि वालेको तो होगी ही। मुनि होते हैं, छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं, ऐसे मुनिराज, जो बारंबार स्वरूपमें लीन होते हैं, स्वानुभूतिमें, वे भी बाहर आये तो उन्हें भी देव-गुरु-शास्त्रकी उनकी भूमिका अनुसार भक्ति होती है, उन्हें शुभभाव होते हैं। उन्हें पूजा आदि कार्य नहीं होते। परन्त उन्हें शास्त्रका वांचन, शास्त्र लिखे, भक्तिके स्तोत्र रचे, ऐसी सब भक्ति होती है। पद्मनन्दि आचार्यने भक्तिके स्तोत्र रचे हैं।

मुमुक्षुः- सुखके लिये मिथ्या प्रयत्न करते हैं, फिर भी सुखी नहीं होते, उसका क्या उपाय है?

समाधानः- सुखके लिये मिथ्या प्रयत्न करता है। सुख अंतरमें है, बाहर नहीं है। बाहर ढूंढता रहे, बाहरसे सुख नहीं आता। सुख तो अंतरमें है। गुरुदेवने मार्ग बताया कि जो तत्त्व हो उस तत्त्वके अन्दर सुख (होता है)। सुख आत्माका स्वभाव है, बाहरसे नहीं मिलता। सुखसे भरा आत्मा जानने वाला, सुखसे भरा, आनन्दसे भरा आत्मा है। आत्माको पहचाने तो सुख प्राप्त होता है। और पहचाननेके लिये उसके विचार, वांचन आदि करे। अन्दर लगनी लगाये, जिज्ञासा करे तो आत्मा पहचानमें आता है। आत्मा कैसे पहचानमें आये, उसकी अंतरसे लगनी लगानी चाहिये कि सुख कैसे मिले?

बाहरसे तो अनन्त कालसे सुखके लिये बहुत व्यर्थ प्रयत्न किया, सुख मिलता नहीं। सुख जहाँ है, वहाँ मिलता है। मृग वनमें घूमता है। उसकी कस्तूरीसे वन सुगन्धित