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हो जाता है, लेकिन कस्तूरी तो उसके पास ही है। अन्दर है। ऐसे आनन्दगुण स्वयंका है और स्वयं बाहर ढूंढता है। स्वयंमें आनन्द भरा है। अंतर दृष्टि करे तो मिले ऐसा है। भेदज्ञान करे कि यह शरीर भिन्न है और आत्मतत्त्व भिन्न है। आत्माके द्रव्य-गुण- पर्याय भिन्न है, शरीरके भिन्न हैं। अन्दर विभाव होता है वह सब आकूलता है, अपना स्वभाव नहीं है। अपना स्वभाव एक जानने वाला आत्मा है। उस जानने वालेका स्वभाव पहचानकर अन्दरसे पहचानना चाहिये। उसका भेदज्ञान करना चाहिये। भेदज्ञान करनेके लिये अंतरकी लगनी लगाये, जिज्ञासा लगाये, विचार, वांचन (करे)। जब तक नहीं होता तब तक विचार, वांचन, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा शुभभावमें होती है। अंतरमें शुद्धात्माको पहचाननेकी लगनी लगाये तो वह पहचाना जाये ऐसा है। बाकी अनन्त कालसे जन्म-मरण किये, भवका अभाव होनेका यह एक ही उपाय है। आत्माको पहचानना, भेदज्ञान करना, अन्दर लगनी लगानी, जिज्ञासा लगानी। उसके लिये विचार, वांचन आदि करना।
मुमुक्षुः- ..लेकिन अन्दरमें जैसा होना चाहिये, चाहे कुछ भी करे अन्दरमें .. समाधानः- विधि तो यही है, स्वयंको पहचानना, भेदज्ञान करना, वही रीत है। मार्ग तो एक ही है। परन्तु पुरुषार्थ स्वयंको करना है। पुरुषार्थ करे नहीं तो होता नहीं। कारण दे नहीं तो कार्य कहाँ-से आये? कारण स्वयंको देना है, पुरुषार्थकी मन्दता है, आगे जा नहीं सकता। अन्दरकी गहराईसे रुचि लगानी चाहिये, पुरुषार्थ अन्दरसे तीव्र करना चाहिये, तो होता है। पुरुषार्थकी मन्दता है, बाहर दौडता रहता है और अंतर दृष्टि करता नहीं, तो कहाँ-से हो? उसे दिन-रात लगनी लगनी चाहिये। कहीं चैन नहीं पडे। एक आत्मा.. आत्माके सिवा कुछ रुचे नहीं। ऐसी अन्दरसे लगनी लगे तो स्वयंकी ओर पुरुषार्थ करे तो होता है।