२९६ है। यथार्थ भेदज्ञान तो (तब होता है)। तब तक उसका अभ्यास करे। विकल्प भी मेरा स्वभाव नहीं है। मैं तो निर्विकल्प तत्त्व चैतन्य हूँ। परन्तु वह उसे यथार्थ ग्रहण न हो तब तक अभ्यास द्वारा होता है।
(गुरुदेवने) यथार्थ बता दिया है। किसीको कहीं भूल पड जाय ऐसा नहीं है। पुरुषार्थ तो स्वयंको करना है। यह पर्याय है, यह द्रव्य है, यह शुभभाव है, यह तेरा स्वभाव नहीं है। तू क्षणिक पर्याय जितना नहीं है। तेरे अनन्त गुणोंसे (भरपूर है)। गुणका भेद पडे ऐसे भेदवाला तेरा स्वभाव नहीं है। तू अखण्ड है। तेरेमें गुण हैं, लेकिन उस भेद पर दृष्टि (करके) उसमें रुकनेसे भी चैतन्यका मूल स्वभाव है वह ग्रहण नहीं होता है। ज्ञानमें सब ज्ञान करे, परन्तु दृष्टि तो एक अखण्ड पर रखनी।
गुरुदेवने अनेक प्रकारसे स्पष्ट करके मार्ग बताया है, कहीं भूल पडे ऐसा नहीं है। पुरुषार्थ स्वयंको करना है। जिन्हें गुरुदेवकी वाणी नहीं मिली है, उन सबकी दृष्टि तो कहाँ बाहर क्रियामें पडी होती है। गुरुदेव तो द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप, उसके सूक्ष्म भाव बता दिये हैं।
मुमुक्षुः- गुरुदेवश्रीका महान उपकार है। गुरुदेवका, आपका अनन्त-अनन्त उपकार है।
समाधानः- गुरुदेव दिशा बतायी, नहीं तो लोग कहाँ पडे थे। स्वानुभूति तो बादमें होती है। पहले तो स्वभाव ग्रहण होता है। स्वानुभूतिका आनन्द तो निर्विकल्प तत्त्व जो प्रगट हो वह बादमें होता है। पहले तो उसे ग्रहण यथार्थ होता है, प्रतीत यथार्थ होता है, उसका ज्ञान हो, बादमें उसकी लीनता ज्यादा हो तो उसे स्वानुभूति होती है। इसलिये पहले तो यथार्थ ग्रहण-अंतरमेंसे ग्रहण करे।
मुमुक्षुः- ग्रहण तो ज्ञानसे करना न?
समाधानः- ज्ञानसे ग्रहण करना। प्रज्ञाथी भिन्न करना और प्रज्ञासे ग्रहण करना। ज्ञानसे ग्रहण होता है। कर्ता-परपदार्थका मैं कर सकता हूँ और पर मेरा कर सकता है। गुरुदेवने (बताया कि), तू ज्ञाता है, ये कर्तृत्व तेरेमें नहीं है। तू परका कर नहीं सकता। तू ज्ञाता-दृष्टा उदासीन ज्ञाता है। ऐसा स्वभाव स्वयंका अंतरमेंसे पहचाने तो उसे यथार्थ भेदज्ञान हो।
मुमुक्षुः- अंतरमेंसे पहचाने।
समाधानः- अंतरमेंसे पीछाने।
मुमुक्षुः- अंतरमेंसे पीछाननेके लिये रुचि बढानी?
समाधानः- रुचि बढाये। लगन, रुचि।
मुमुक्षुः- आप बोले होंगे वह आत्मधर्ममें आया है। तेरी कहाँ भावना है? ऐसी