Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-४)

२९८

समाधानः- परिणति भिन्न पडे। भिन्न नहीं करता है, साथमें एकत्व रहता है।

मुमुक्षुः- एकत्व तोडनेके लिये स्वभावका अवलम्बन?

समाधानः- स्वभावका अवलम्बन अंतरमेंसे ले तो हो। जितनी ज्ञायककी महिमा आनी चाहिये, उतनी आती नहीं। अंतरमें ही सर्वस्व सारभूत है। उसीमें सबकुछ है। उतनी अंतरसे लगन लगे तो पुरुषार्थ क्षति है (वह दूर होकर) अंतरमें जाय। करनेका एक ही है। परिणति भिन्न करके भेदज्ञान करना।

मुमुक्षुः- माताजी! विचार ऐसा आता है कि अनेक ज्ञानी हो गये और उनको इस प्रकार उनके ज्ञानमें महिमा आयी और.. हमें उस प्रकारकी महिमा क्यों नहीं आती है? जितनी स्वरूपकी अगाधता अथवा गंभीरता है, उतनी स्वरूपकी गंभीरता ज्ञानमें आनी चाहिये अथवा महिमा आनी चाहिये, ऐसी सविकल्प दशामें महिमा क्यों नहीं आती कि जिससे परिणति अन्दर नहीं जाती? प्रयत्नमें तो जैसी हमारी समझ है उस प्रकारका प्रयत्न तो चालू ही है। कम-बेसी प्रमाणमें होता है। परन्तु रस कहीं और है ऐसा तो दिखता नहीं। फिर भी अटकता है यह भी ख्यालमें आता है। फिर भी एकान्त उसीमें रस पडा है,.. वह भी ख्यालमें आता है कि यह भूल है, दोष है। इतना भी ख्यालमें आता है। पुरुषार्थ करनेकी गंभीरता भी समझमें आती है। और उस तरह पुरुषार्थ करनेका प्रयत्न भी चलता है। फिर भी महिमा, ज्ञायककी महिमा जो आप कहते हो, जिस प्रकारसे अंतरसे आनी चाहिये, ऐसी महिमा, ऐसा लगता है कि उस प्रकारसे नहीं है। सविकल्प दशामें ऐसी कोई महिमा आ जाती होगी कि अनुभव हो तब ही वास्तवमें महिमा आये?

समाधानः- उसकी महिमा सविकल्पतामें भी आती तो है, नहीं तो वह अंतरमें जाय कैसे? महिमा आये। भले यथार्थ महिमा उसे जो अनुभवमें आये वह तो कोई अलग आती है। परन्तु पहले उसे आती है कि ये विभाव कोई महिमारूप नहीं है। स्वभाव ही महिमारूप है। ऐसी अन्दरसे दृढ प्रतीति तो पहले उसे आये तो ही स्वभावकी ओर झुकता है। ऐसी प्रतीति तो अंतरमेंसे आनी चाहिये। महिमा तो उसे (पहले) आती है। परन्तु वह नहीं आती है इसलिये रुक जाता है। उसकी मन्दता हो जाती है। परन्तु महिमा पहले भी आता तो है। परन्तु वह महिमा तो अलग है, स्वभावकी परिणति। अनुभव दशामें आये (वह)।

मुमुक्षुः- कल पण्डितजीने एक बात कही, अन्दरसे धार प्रगट हो और जितना उसका फोर्स ख्यालमें आये, अगाधता ख्यालमें आये, वह अनुभव होनेके बाद वह दोनों बात बहुत सुन्दर प्रकारसे (समझायी कि), आंशिक प्रगट होनेसे परिपूर्णताका ख्याल उस वक्त तो आ सकता है। क्योंकि वह प्रकार ही ऐसा होता है कि सर्वांगसे वह आनन्द