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प्रगट होता है और उसका जोश भी उस प्रकारका होता है। ये दोनों बात उस प्रकारसे समझायी थी। तो कैसे, अभी तो आप कहते हो वैसे अन्दरसे समझमें तो बराबर है कि यही करने जैसा है, यह करनेसे सुख होगा, उसका प्रयत्न भी कम-बेसी प्रमाणमें चलता है। हो सकता है कि पुरुषार्थ कम हो। परन्तु कभी-कभी ऐसी उलझन हो जाती है कि इतना प्रयत्न करते हैं (फिर भी प्राप्त क्यों नहीं होता)?
समाधानः- उसकी महिमा अन्दर कैसी है, वह तो उसे स्वानुभूतिके अंश परसे पूर्णता कितनी उसका ख्याल आये। ये तो सविकल्पतामें निर्णय करता है। परन्तु उसमें उसके पुरुषार्थ क्षति है इसलिये जा नहीं सकता। पुरुषार्थकी मन्दता है। जिसमें पडा है अनादिके अभ्यासमें, उसीमें पडा है। उसमेंसे भिन्न नहीं पडता। थोडा ज्यादा पुरुषार्थ करे, परन्तु जितना चाहिये उतना पुरुषार्थ नहीं करता है, इसलिये भिन्न नहीं पड सकता है।
अनादिके अभ्यासमें उसी प्रवाहमें बह जाता है। उस प्रवाहको पीछे नहीं मोडता। मोडे तो अमुक प्रकारसे मोडता है। सर्व प्रकारसे मोडना चाहिये वैसे नहीं मोडता। भले एक अंशरूपमें लेकिन प्रतीतिमें तो उसे सर्व प्रकारसे, सर्वस्वरूपसे मोडना चाहिये। चारित्रका एक बाकी रहे, परन्तु प्रतीतिमें उतनी पूर्ण श्रद्धा, उतनी प्रतितका जोर होता है कि यह द्रव्य वस्तु अखण्ड पूर्ण वह मैं हूँ और वही सर्वस्वरूपसे आदरणीय है। सर्व प्रकारसे वही आदरणीय है। सब करके उसीमें लीनता करने जैसी है और वही करने जैसा है। सर्वस्व प्रकारसे उतनी प्रतीतिका जोर पहले उसे उतनी दृढता आवे तो वापस मुडे। उस प्रवाहमें ऐसी ही बह जाता है।
मुमुक्षुः- पहले अशुभमें ज्यादा बहना होता था, अब शुभमें ऐसा लगता है कि शुभमें कहीं न कहीं अटकता है।
समाधानः- हाँ, कहीं न कहीं प्रवाहमें बह जाता है। फिर शुभ रहता है, अमुक अस्थिरता होती है, परन्तु उसकी प्रतीतिमें तो सर्व प्रकारसे सर्वांशसे यही करने जैसा है, ऐसी पूर्ण प्रतीतिमें दृढता (आ जानी चाहिये)। प्रतीतिकी परिणति तो एकदम अपनी ओर दृष्टिका जोर पहले आये तो उसका अनादिका प्रवाह वापस मुडे। प्रवाहका पूरा बल स्वभावकी ओर मुड जाय। फिर थोडा खडा रहे वह अलग बात है। प्रवाह अनादिका है, वह पूरा प्रवाह स्वभावकी ओर उसकी दृष्टिकी दिशा पूरी बदल जाय। बाहर देखता है उसके बजाय देखनेकी दिशा चैतन्यकी ओर चली जाती है। दृष्टिको चैतन्य पर स्थापित कर देता है।
मुमुक्षुः- विभावभावसेे मैं भिन्न हूँ और स्वभावकी महिमा...
समाधानः- दोनों एकसाथ ही होता है। स्वभावकी महिमा और इससे भिन्न हूँ।