Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-४)

३०० स्वभावका अवलम्बन ले और विभावसे भिन्न हूँ। स्वभावका अस्तित्व ग्रहण करे और इससे मैं भिन्न हूँ। अस्तित्व ग्रहण करे वहाँसे भेद करता है। अस्तित्व ग्रहण करे उसमें स्वयंकी महिमा समा जाती है। अखण्ड ज्ञायक मैं हूँ, उस ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण करे, विभावसे भिन्न (हो जाता है)।

खण्ड-खण्डरूप जो पर्याय दिखती है उतना भी मैं नहीं हूँ, मैं तो अखण्ड ज्ञायक हूँ। ऐसे अस्तित्वको ग्रहण करे। उसकी महिमा, उसका अस्तित्व, उसे ग्रहण करे तो विभावसे भिन्न पडे। स्वयंको ग्रहण करे और विभावसे भिन्न पडता है। भिन्न होनेके बाद दृष्टिके बलसे प्रतिक्षण भिन्न पडता रहता है। विभाव आये तो भी क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें भिन्न पडता है। अनादिका एकत्वबुद्धिका प्रवाह है उस प्रवाहमें बह जाता है। विचारसे नक्की करे कि मैं भिन्न हूँ, ये मेरा अस्तित्व इससे भिन्न है, ऐसा विचारसे (नक्की करे), ऐसा विचार करता रहे, परन्तु कार्यके अन्दर उसकी परिणतिका प्रवाह एकत्वमें चला जाता है। वह कार्य नहीं करता है।

कार्य जो स्वभावकी ओर जाना चाहिये, दृष्टिका बल, वह नहीं जाता है। प्रवाहमें बह जाता है। विचारसे चाहे जितना नक्की करे, फिर भी प्रवाह ज्योंका त्यों चलता है। वह मन्द, कभी उग्र-तीव्र ऐसा करता रहता है, लेकिन स्वभावकी ओर जोरसे जो दृष्टि जानी चाहिये वह जाती नहीं। स्वभावका अस्तित्व बलपूर्वक महिमापूर्वक ग्रहण करे तो विभावसे भिन्न पड जाता है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!