मुमुक्षुः- अस्तित्वको ग्रहण करना वह स्वरूपकी महिमा है?
समाधानः- स्वभावका अस्तित्व ग्रहण करे उसमें महिमा (आ जाती है)। वह अस्तित्व ग्रहण कब करे? अपनी महिमा आये तब ही ग्रहण करता है। उसकी महिमा न आये और उसे रूखा लगे तो ग्रहण ही न करे। उसकी महिमा आये तो ही ग्रहण करता है। इस ज्ञायकमें ही सब भरा है। ज्ञायक स्वयं भगवान है।
जैसे जिनेन्द्र भगवानकी महिमा आये, गुरुकी महिमा आये, वैसे ज्ञायकदेवकी महिमा आये। वह भी-ज्ञायकदेव भी एक भगवान है। अनन्त शक्तियोंसे भरा हुआ। जैसे जिनेन्द्र भगवान प्रगटरूपसे भगवान है, वैसे यह शक्तिरूपसे भगवान ही है। ऐसे उसे अंतरमेंसे महिमा आये, उसकी गंभीरता भासे तो उसका अस्तित्व ग्रहण करे। तो महिमापूर्वक किया हुआ, ग्रहण किया हुआ अस्तित्व जोरपूर्वकका अस्तित्व उसे ग्रहण होता है। नहीं तो वह अस्तित्व ग्रहण नहीं कर सकता है। रूखा लगे कि ज्ञायक सिर्फ बोलनेमात्र हो तो वह वास्तविकरूपसे ग्रहण नहीं हो सकता। शक्तिरूपसे। गुरुदेव कहते थे कि तू भगवान है। तू चैतन्य भगवान है। शक्तिरूप। प्रगट बादमें होता है।
मुमुक्षुः- विचार करता है फिर भी परिणतिमें नहीं आता है अथवा लेता नहीं।
समाधानः- विचारमें नक्की करता है, लेकिन वह कार्यमें नहीं आता है। परिणति उस रूप अपनी ओर (आती नहीं)। मैं भिन्न हूँ, यह हूँ, ऐसा नक्की करता है। परन्तु भिन्नतारूप उसका जो कार्य आना चाहिये वह कार्य नहीं होता है, उसका कार्य नहीं करता है। इसलिये परिणति ज्योंकी त्यों एकत्वतारूप परिणमती रहती है।
मुमुक्षुः- अर्थात ज्ञायकको ग्रहण नहीं करता?
समाधानः- ज्ञायकको ग्रहण नहीं करता है इसलिये परिणतिमें भेदज्ञान होता नहीं। स्वंयको ग्रहण करे तो विभावसे भेद पडे कि यह मैं हूँ और यह नहीं हूँ।
मुमुक्षुः- इसलिये पुरुषार्थकी स्वयंकी ही कचास है।
समाधानः- स्वयंकी क्षति है, पुरुषार्थकी कचास है। स्वयंको ग्रहण करे, ज्ञायकको ग्रहण करे बलपूर्वक। उस दृष्टिके अवलम्बनसे वह आगे बढता है। और उसकी ऐसी भेदज्ञानकी धारा, ज्ञाताकी धारा उग्र हो तो ही उसे विकल्प टूटकर स्वानुभूति होती