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नाम विरति है।
.. वह तो अवश्य होती ही है। जिसे सम्यग्दर्शन होता है, उसे विरति अवश्य होती ही है। उसे स्वरूपकी लीनता क्रम-क्रमसे बढती जाती है। फिर उसमें क्रम पडे, किसीको देर लगे, किसीको तुरन्त होती है। परन्तु उसे विरति तो अवश्य आती ही है। ज्ञानका फल विरति तो आती ही है। और आंशिक स्वरूप रमणता तो जो ज्ञायकताको पहचानी, ज्ञाताधारा हुयी उसे स्वरूप रमणता तो चालू ही हो गयी। अनन्तानुबंधी कषाय टूट गया इसलिये उतनी विरति तो उस प्रकारसे आ गयी। परन्तु जो विरति चारित्रदशाकी होती है, उस चारित्रदशाकी विरति आनेमें देर लगे, परन्तु अवश्य आती है। वास्तविक विरति वह है। मन्द कषाय हो वह विरति नहीं है, वह तो मन्द कषाय है। वांचन करे, विचार करे उसमें मन्द कषाय होता है कि ये विभावभाव अच्छा नहीं है, ऐसी भावना हो, रुचि हो, परन्तु वह भी अभी वास्तविक नहीं है, वह तो भावना करता है। मन्द कषाय है।