Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-४)

३०६

मुमुक्षुः- आपको ऐसा लगे कि देव-गुरु-शास्त्रके बिना नहीं चलेगा, हमें ऐसा होता है कि आपके बिना नहीं चलेगा।

समाधानः- गुरुदेव मिले सबको, महान उपकार किया है। सन्धि बतायी है। उन्होंने निश्चय-व्यवहारकी सन्धि बहुत बतायी है। शास्त्रोंके रहस्य सब उन्होंने सूलझाये हैं। कोई जानता नहीं था, शास्त्रोंकी किसीकी चौंच डूबती नहीं थी। सब रहस्य उन्होंने खल्ले किये हैं।

मुमुक्षुः- मामा कितनी बार कहते थे, बहिन कहते हैं कि आत्मा शब्द बोलते हो तो गुरुदेवके प्रतापसे। कितनी बार, मामा ये शब्द (बोले थे)। बहिन ऐसा कहते हैं, बहिन ऐसा कहते हैं। .. ये शास्त्रका अनुवाद किया वह गुरुदेवके कारण।

समाधानः- उनके कारण अर्थ सूझे, नहीं तो अर्थ कहाँ-से सूझे? उनको गुरुदेवने मार्ग बताया, इसलिये वे संस्कृतमेंसे अर्थ मिला सकते हैं।

मुमुक्षुः- मामा कितनी बार बोलते थे, हाँ! पण्डित तो बहुत हैं, लेकिन ये तो गुरुदेवके कारण ही भाषांतर हुआ है।

समाधानः- गुरुदेवने दृष्टि बतायी, तो उसके अर्थ सूझे।

मुमुक्षुः- स्व-परका भेदज्ञान हो कि मैं ज्ञायक भिन्न हूँ। उसे आंशिक स्वरूप रमणता हो गयी। वह विरति हो, परन्तु बादमें उसे जो भूमिका बदल जाती है, चौथा गुणस्थान, बादमें पाँचवा, छठवां-सातवां (आता है), उस ज्ञानका फल विरति है। अन्दर ज्ञायकता, भेदज्ञान हो वह वास्तविक विरति है। वह वास्तविक विरति है। वांचन, विचार वह तो एक...

मुमुक्षुः- परन्तु उसके पहले तारतम्यतामें कोई भेद नहीं पडते? श्रीमदजीने लिखा कि जो पढनेसे, विचार करनेसे आत्मा विभावसे, विभावभावसे पीछे नहीं मुडा, तो वह पढना, विचारना मिथ्या है।

समाधानः- पढना, विचारना उसमें विरति नहीं आती। वह नहीं है। वास्तविक विरति तो अन्दर भेदज्ञान हो तब (होती है)। सच्ची विरति तो उसका नाम है। जो पहले मन्द कषाय होता है वह सच्ची विरति नहीं है। वह तो मन्द कषायरूप है। सच्ची विरति उसका नाम कि सर्व विभावभावसे भेदज्ञान होकर और अंतरमें जितने ज्ञायकताके परिणाम, ज्ञातृत्वकी तीखास हो, अंतरमें जो निवृत्त परिणाम आवे उसका नाम विरति है। अंतर स्वरूपमें स्थिरता हो, स्वरूपमें लीनता हो, उसका नाम विरति है। उसे अंश-अंशमें जो गृहस्थाश्रमके भाव हैं, उसे अंतरमेंसे एकत्वबुद्धि छूटती जाय, उसका रस टूटता जाय, उसका नाम विरति है। अंतरमेंसे अकषायभाव टूटकर जो अंतरमें लीनता होती है, स्वरूपका आनन्द बढता जाय, स्वरूपकी लीनता बढती जाय, उसका