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ही मुझे चाहिये। पर्यायभेद या कहीं नहीं रुककर मुझे मेरा एक अस्तित्व चाहिये।
मुमुक्षुः- निस्पृहताकी अंतिम पराकाष्टा है कि भेदमें भी नहीं रुकता।
समाधानः- भेदमें रुकता नहीं कि ये ज्ञान है, दर्शन है, आनन्द गुण है या दूसरा गुण है, ऐसे कहीं भी नहीं रुककर एक अस्तित्वको ग्रहण (करता है), दृष्टि तो वहीं स्थापित कर देता है।
मुमुक्षुः- पर्यायमें तो न रुके लेकिन गुणभेदमें भी नहीं रुकता। विचार आ जाय, लेकिन रुकता नहीं। उतनी निस्पृहता (आ जाती है)।
समाधानः- रुकता नहीं, विचार आये तो भी दृष्टि तो एक अस्तित्व पर ही रखनी है। आत्मामें विचार करे लेकिन उस ओर रुकता नहीं। एक अपना अस्तित्व ग्रहण कर लेता है। इतना निस्पृह हो जाता है।
मुमुक्षुः- कितना.. विचारमें ले कि आत्मामें ज्ञानगुण है, ज्ञानमें ऐसी शक्ति है, ऐसा सामर्थ्य है। फिर भी वहाँ रुकता नहीं। उतनी निस्पृहता..
समाधानः- खडे-खडे विचार करता रहे तो अन्दर जा (नहीं सकता)। अन्दर उग्रता हो तो अन्दर जा सके। खडे-खडे विचार करना कि ज्ञायकका द्वार छोडना नहीं। देर लगे तो भी। भगवानके द्वारा पर खडे-खडे... तो भगवानके द्वार खुल जाय। वैसे ज्ञायकके द्वार पर खडे-खडे भले विचारको वहीं टिकाये रखे तो यदि अन्दर स्वयंको लगी है तो उसे ज्ञायक ग्रहण होनेका अवकाश है। अवकाश है। उसे उतनी महिमा है। वहाँ खडा है। भले भावनारूप खडा है।
मुमुक्षुः- विकल्पात्मकमें तो भावभासन है कि ज्ञायक कैसा मात्र जाननेवाला..
समाधानः- हाँ, तो ग्रहण होनेका अवकाश है। .. महिमा लगे, ज्ञायकदेव जिसने प्रगट किया, देव-गुरु-शास्त्र जिन्होंने साधना करके प्रगट किया, उनकी अनुमोदना, उनकी आराधना तो साथमें होती ही है, उनका साथ तो साथमें होता ही है। उनके बिना कैसे चले? मैं आगे तो बढूँ, लेकिन आपको साथ रखता हूँ।
मुमुक्षुः- दोनों एकसाथ होते हैं।
समाधानः- साथमें हैं। उसे ऐसा नहीं होता कि मैं मुझसे करता हूँ। ऐसी भावना नहीं होती। सबको मैं साथमें रखता हूँ। सबका आदर है। स्वयंका आदर हुआ, उसे देव-गुरु-शास्त्रका आदर है। देव-गुरु-शास्त्रका आदर है, उसे स्वयंका आदर है। वास्तविक आदर ही उसे कहनेमें आता है।
मुमुक्षुः- .. उसमें स्वच्छन्द होनेका, अभिमान चढनेका..
समाधानः- मैं मुझसे करता हूँ, ऐसा नहीं होता। मुझसे भले होता है, परन्तु मैं देव-गुरु-शास्त्रको साथमेंं रखता हूँ। ...