३०४ तो साथमें है ही। पुरुषार्थकी मन्दता, रुचिकी मन्दता। अनादिका जो प्रवाह है न, उस प्रवाहमें ऐसे ही बह जाता है। उस प्रवाहको मोडना उसे मुश्किल पडता है। रुचि हो, भावना हो, अमुक प्रकारसे उसके विचार आये, मंथन हो, निर्णय करे, परन्तु उसकी दिशा जो कार्यमें लेनी चाहिये, उस कार्यमें लेनेमें उसे देर लगती है।
अनादिका जो प्रवाह है, ऐसे ही चलता है। भावना होती रहे, लेकिन उसका पलटना, उसे कार्यमें लाना उसमें पुरुषार्थका बल चाहिये, और पूरी दृष्टि बदलनी पडे। विचारमें वह सब निर्णय करता है, परन्तु उसका पलटना, अनादिका जो प्रवाह है उसमेंसे उसे पुरुषार्थ और उतनी तीव्रता, अन्दर लगन चाहिये तो होता है।
मुमुक्षुः- आपने कहा कि ग्रहण नहीं करता है, उसमें बहुत वजन नहीं था। ग्रहण नहीं करता है। अस्तित्वको ग्रहण नहीं करता है।
समाधानः- अस्तित्वको ग्रहण नहीं करता है। उसके मूलको ग्रहण नहीं करता है। विचारमें लेता है, परन्तु अंतरमें ग्रहण नहीं करता है।
मुमुक्षुः- जितनी यथार्थ महिमा और उसकी अधिकता भासित होनी चाहिये उतना आता नहीं, इसलिये ग्रहण नहीं हो रहा है और कहीं न कहीं अटक जाता है।
समाधानः- अटक जाता है। उतनी महिमा, उतनी लगन, उतना पुरुषार्थ नहीं करता है।
मुमुक्षुः- बात तो.. ग्रहण नहीं करता है। नहीं करता है, उसके कारणमें रुचिकी मन्दता मुख्य कारण है। अधिकता जो भासित होनी चाहिये, सबसे मैं अधिक हूँ और उसकी जो महिमा आनी चाहिये, वह नहीं आती।
समाधनः- मैं अधिक हूँ और ये सब सारभूत नहीं है। यही सारभूत है, उतनी अंतरमेंसे रुचि लगनी चाहिये तो होता है।
मुमुक्षुः- बारंबार उसकी सन्मुखताका बल बढे...
समाधानः- बारंबार उसका अभ्यास करे, रुचि बढानेका, पुरुषार्थ बढानेका प्रयत्न करे। अस्तित्व ग्रहण करनेका, तो हो सकता है।
मुमुक्षुः- आपके एक बोलमें आता है कि इतना निस्पृह हो जाता है कि भेदको भी.. आपका एक बोल आता है न कि भेदको भी लक्ष्यमें लेता नहीं अथवा भेदमें रुकता नहीं।
समाधानः- भेदमें रुकता नहीं, कुछ नहीं चाहिये, बस! एक (अस्तित्व चाहिये)। उतना निस्पृह हो जा। कुछ नहीं चाहिये। आत्माका (अस्तित्व) चाहिये।
मुमुक्षुः- मूल बात है।
समाधानः- मूल वह है। कोई स्पृहा नहीं है, एक आत्माके अलावा। एक आत्मा