३१८ धारा सहज वर्तती है। उसकी दशा पूरी अलग होती है। उसके जीवनकी दिशा पलट गयी। अंतरमेंसे दिशा ही पलट गयी होती है।
मुमुक्षुः- उस वक्त उसे कहाँ सुहाता है?
समाधानः- उसे आत्माकी ओर ही सुहाता है, कहीं और नहीं सुहाता। उसकी परिणति आत्माकी ओर ही दौडती है। आत्माकी ओर ही उसकी परिणति जाती है। परिणति बाहर अल्परूपसे जाती है, परन्तु उसे पुरुषार्थके बलसे स्वरूप-ओर ही उसकी परिणति दौडती है। उसे स्वरूपमें ही रुचता है, कहीं और उसे रुचता नहीं। उसकी सब धारा स्वरूप-ओर ही जाती है।
अल्प अस्थिरता है तो उसका पुरुषार्थ सहजपने अपनी ओर बहता है, ज्ञायककी ओर ही मुडता है। आंशिक शान्ति-समाधि और ज्ञायकताकी धारा उसकी चालू ही रहती है। फिर जैसे उसकी उग्रता होती जाय, वैसे उसे स्वानुभूति बढती जाती है। और बादमें उसकी भूमिका बदलती है। छठवां-सातवां गुणस्थान मुनिदशा आये तो क्षण- क्षणमें स्वरूपमें लीनता होती है।
मुमुक्षुः- स्वकी ओर आनेके लिये पुरुषार्थ कैसे करना?
समाधानः- अपनी ओर मैं चैतन्य हूँ और उसका रस बाहरका कम हो जाता है। स्वरूपकी रुचि और स्वरूप-ओरका रस बढ जाय तो बाहरकी परिणति कम हो जाय। उसका भेदज्ञान करे कि ये जो बाहर जाता है, वह विभाव है, मेरा स्वभाव ही नहीं है। वह मुझे सुखरूप नहीं है, वह आकुलतारूप है। सुख और शान्ति हो तो चैतन्यमें ही है। इसलिये चैतन्य-ओरकी ऐसी दृढ प्रतीति हो, उस ओर दृष्टि जाय, उसकी दिशा अमुक प्रकारसे भावनारूप भी बदले तो उसकी बाहर जो परिणति जाती है वह कम हो जाय। ये सब आकुलतारूप है, शान्ति और सुखरूप हो तो मेरा आत्मा ही है। ऐसी उसे यदि प्रतीति, रुचि हो तो अपनी ओर मुडे।
अनादिअनन्त निर्मल स्वभाव हूँ। ये सब जो विभाव दिखता है वह सब पर्याय है। अन्दर मूल स्वभावमें नहीं है। स्फटिकमें जो रंग-बेरंग दिखते हैं, गुलाबी, काला, हरा, वह उसके मूलमें नहीं है। वैसे ये जो विभावके रंग दिखाई देते हैं, वह मेरा स्वभाव नहीं है। मैं तो निर्मल स्वभाव आत्मा हूँ। ऐसा अंतरमें ज्ञान, ऐसी प्रतीति, ऐसी दृष्टि हो तो अपनी ओर परिणति मुडे। उतनी दृढता हो तो।
मुमुक्षुः- बारंबार अन्दर यह विचार करते रहना?
समाधानः- बारंबार करना। और विचारमें दृढता न रहे तो उस प्रकारका वांचन करना, उस प्रकारका विचार करना। एक ही जगह विचार न रहे तो उसे दृढ रखनेके लिये उस प्रकारका वांचन गुरुदेवने कहा है, शास्त्रका अभ्यास करना, अंतरमें विचार