१८२
करना। परन्तु एक चैतन्य कैसे पहचानमें आये और उसका भेदज्ञान कैसे हो, ध्येय वह एक ही होना चाहिये। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा (होनी चाहिये)। आत्मा एक महिमावंत कोई अलग वस्तु है। ऐसी महिमापूर्वक सब विचार वांचन करे।
मुमुक्षुः- वृत्ति परमें जाती है है।
समाधानः- अनादिका अभ्यास है और उस प्रकारका अभ्यास दृढ हो गया है। स्वभाव अपना है, सहज है। सरल है, लेकिन अभ्यास दूसरा-विभावका हो गया है। इसलिये उस ओर बाहरमें अनादिसे दौड जाता है। उस संस्कारको अनादिसे दृढ कर लिया है। इसलिये अपनी ओरके संस्कारको दृढ करे, बारंबार उसे दृढ करे तो विभाव ओरके संस्कार कम हो जाय।
कितने ही जीवोंको अंतरमें रुचि प्रगट हुयी। किसीको दिशा मालूम नहीं थी। गुरुदेवने दिशा बतायी है। सब कहाँ-के-कहाँ बाहर क्रियामें पडे थे। थोडा बाहरका कर ले, थोडा उपवास कर ले, थोडा प्रतिक्रमण, सामायिक कर ले तो धर्म हो गया, ऐसेमें पडे थे। गुरुदेवने कितनी गहरी दृष्टि बतायी।
ये विभावस्वभाव, शुभभाव भी पुण्यबन्धका कारण है। अन्दर तू अखण्ड द्रव्य पर दृष्टि कर। गुरुदेवने तो कितनी सूक्ष्म गहरी बात बता दी है। बीचमें शुभभाव आये, परन्तु तेरा स्वभाव तो उससे निराला है। गुणका ज्ञानका कर, परन्तु दृष्टि तो एक अखण्ड पर स्थापित कर। गुरुदेवने सबकी दृष्टिकी दिशा पूरी बदल दी। करना तो स्वयंको है।
समाधानः- देव-गुरु-शास्त्रका मुझे आदर है और सबको साथमें रखता हूँ। उनके दर्शन, उनकी वाणी आदि सब मेरे साथ हो। मैं जा रहा हूँ मेरे पुरुषार्थसे। जिनेन्द्र देवकी महिमा, भगवानकी, गुरुकी, शास्त्रकी। भगवानकी महिमा, जिनेन्द्र देवकी महिमा तो करने जैसी है।
मुमुक्षुः- गुरुदेव और आपके प्रतापसे। ऐसी माँ कहीं और नहीं होती।
समाधानः- चैतन्यका अभ्यास बढ जाय, उसकी महिमा बढ जाय तो बाहरका रस कम हो जाय।
मुमुक्षुः- ... करनेके लिये मार्गदर्शन तो चाहिये। अपनेआप तो होता नहीं।
समाधानः- उसके लिये सत्संग हो, गुरु हो, उनका अपूर्व उपदेश हो। परदेशमें हो वहाँ समझनेका कम होता है। न हो वहाँ तो अपनेआप ही समझना पडता है। बाकी सत्संग, सच्चे गुरु, उनका अपूर्व उपदेश, वह सब उसके साधन हैं।
मुमुक्षुः- लंडनमें..
समाधानः- मार्ग जहाँ प्राप्त हो वहाँ...
मुमुक्षुः- कुटुम्ब प्रतिकी सब फर्ज हो तो भी चैतन्य स्वभावमें स्वयं आ सकता है?