३२०
समाधानः- पर जीवोंने कहाँ स्वयंको प्रतिबन्धमें रखा है? अपने रागके कारण रुकता है। कर सकता है। अंतरमें अपने परिणामको कोई रोक नहीं सकता। अंतरमेंसे आत्मा अपूर्व है, उसका रस तोड दे, सब करके स्वभावको पहिचाननेका प्रयत्न करे, विचार करे, वांचन करे उसमें रोक नहीं सकता, कोई रोकता नहीं। बाहरका कुटुम्ब कोई रोकता नहीं।
ये तो अभी समझनेकी बात है, (आगे तो) भेदज्ञान करनेकी बात है। उसकी लगन लगानेकी बात है। मुनि बननेकी बात अभी आगे है, अभी तो स्वानुभूति करके भवका अभाव हो वह बात है, वह तो हो सकता है। कुटुम्बमें पडा हो तो भी हो सकता है। अंतरका रस तोडना अपने हाथकी बात है। बाह्य संयोग उसे रोकते नहीं।
... एकत्वबुद्धि करके बाह्य कायामें अपना कर्तव्य मान-मानकर स्वयं रचापचा रहे तो स्वयं रुकता है, कोई रोकता नहीं। स्वयं रस कम करके विरक्ति करके अंतरमें स्वयंका कर सकता है। राजाओं भी गृहस्थाश्रममें रहकर अन्दरसे भिन्न रहकर आत्माका कर सकते थे, आत्माकी स्वानुभूति कर सकते थे। सहज ही छूट जाते थे। बाहरके कार्य उसे रोकते नहीं थे, अंतरसे निर्लेप रहते थे।
... सामग्री कितनी हो तो भी अंतरसे तो भिन्न ही रहते थे। मेरा आत्मा वही मुझे सर्वस्व है। ... अंतरसे वांचन करना, विचार करना, ये सब तो...
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- वह कोई कर्मका उदय नहीं है। स्वयं करे तो होता है। संसारमें स्वयं ही रचापचा है और तोडे तो स्वयं ही छोड सकता है। अंतरमें एकत्वबुद्धि करके, रस करके यह मुझे करना चाहिये, यह मुझे होना चाहिये और ये इतना कर लेना चाहिये, इतना यह चाहिये, इतना बाहरका चाहिये, स्वयं ही उसमें रुका है। कोई रोकता नहीं। उसे उदय नहीं रोकता है। स्वयं पुरुषार्थ करके बदल सकता है। (उदय) उसे रोकता नहीं। उदय रोकता हो तो कोई पुरुषार्थ कर ही न सके। गृहस्थाश्रममें रहकर सम्यग्दर्शन प्राप्त करे, स्वानुभूति करे, भिन्न रहते थे, तो कोई कर ही न सके। उदयका कारण नहीं है। स्वयंका कारण है। अपनी भूलसे रखडा है और स्वयं छूट सकता है।
अनन्त कालमें सब मिला है। एक सम्यग्दर्शन जीवने प्राप्त नहीं किया है। वह अपूर्व है। अनादि कालमें भगवान नहीं मिले हैं। भगवान मिले तो स्वयंने पहिचाना नहीं है। वह दोनों अपूर्व हैं, दूसरा कुछ जगतमें अपूर्व नहीं है।
मुमुक्षुः- .. अपने कर्मका उदय आये..
समाधानः- उदयसे समझमें नहीं आता, परन्तु स्वयं पुरुषार्थ करे। उसका बारंबार