३४६ शास्त्रको कौन पहचानता था? गुरुने सब बताया है।
मुमुक्षुः- कुछ नहीं, हम तो कहाँ पडे थे।
समाधानः- उस मार्ग पर अब तो स्वयंको पुरुषार्थ करना बाकी रहता है। सत्य तो वह है। मूल मार्ग एक ही है। भेदज्ञान करके चैतन्यद्रव्य पर दृष्टि स्थापित करना। जो अनन्त गुण हैं उसे लक्ष्यमें रखकर, उसमें पर्याय होती है वह लक्ष्यमें, ज्ञानमें लेकर दृष्टि एक अभेद चैतन्य पर स्थापित करने जैसी है। मैं यह चैतन्य हूँ, चैतन्य हूँ। सब विकल्पके भेद, विकल्परूप मैं नहीं हूँ। मैं उससे भिन्न हूँ। विकल्प आये लेकिन मैं उसका जाननेवाला हूँ। ज्ञान सब करना परन्तु दृष्टि एक चैतन्य पर स्थापित करनी है।
मुमुक्षुः- आपकी कृपा है, परन्तु मेरी कचास है।
समाधानः- .. साथमें रखकर आत्माका भेदज्ञान करना। "भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन।' जो सिद्ध हुएँ भेदविज्ञानसे ही हुए हैं और वही करनेका है। एक द्रव्य पर दृष्टि, एक ज्ञायक... ६ठ्ठी गाथा, "नहिं अप्रमत्त प्रमत्त नहिं, जो एक ज्ञायकभाव है'। एक ज्ञायकभावको पहचानना। पर्यायके भेदमें भी एक ज्ञायकको पहचानना।
एक ही मार्ग बताया है। सबमें एक ज्ञायकको पहचानना। चैतन्य, इस शरीरसे भिन्न अन्दर विकल्प है वह आत्माका स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न आत्माको पहचानना। आत्मा अन्दर एक चैतन्यतत्त्व है। यह शरीर तो एक जडतत्त्व है। अन्दर आत्मा चैतन्य है। अंतर दृष्टि, गहरी दृष्टि करके उसे कैसे पहचानना? वही करनेका है। उसकी महिमा, उसकी लगन, जीवनमें वही करने जैसा है। बाकी बाहरका तो सब अनन्त कालमें बहुत बार किया है। यह जन्म-मरण करते हुए मनुष्यभव बडी मुश्किलसे मिलकता है। उसमें अंतरमेंसे स्वभाव प्रगट हो, ऐसा मार्ग गुरुदेवने बताया। करने जैसा वह है। उसकी कैसे पहचान हो? उसके लिये गुरुदेव क्या कहते हैं? गुरुदेवने क्या मार्ग बताया है? उसके लिये देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा क्यों है? आत्माको पहचाननेके लिये। एक ज्ञायक आत्मा कैसे पहचाना जाय?
वह कोई अपूर्व और अनुपम वस्तु है। अनन्त कालमें जीवको सब प्राप्त हो चूका है। परन्तु एक चैतन्यतत्त्व, एक स्वानुभूति-आत्माकी स्वानुभूति प्रगट नहीं की। वह कैसे प्रगट हो? उसके लिये उस प्रकारके विचार, वांचन, महिमा वह करने जैसा है। उसका भेदज्ञान करके अंतर दृष्टि करके देखे तो अंतर आत्मा चैतन्य अनन्त गुणसे भरा अनुपम तत्त्व है। इस जगतकी कोई वस्तु अनुपम नहीं है, एक आत्मा ही अनुपम है। देवलोकके देव भी अनुपम नहीं है। वह एक भव है। वह तो पुदगल है। वह पुदगल कर्मका फल है। आत्मा ऐसा अनुपम है, उसे पहचाने तो भवका अभाव हो।
जैसे सिद्ध भगवान हैं, वैसा आत्मा है। सिद्ध भगवान जैसा अंतरमें अंश (प्रगट