१२० हैं, वह तो प्रत्येक गुणका कार्य आता है। कारणशुद्धपर्याय तो अनादि अनन्त है। वह तो पारिणामिकभावरूप शुद्ध है। वह अलग है। ये तो सिद्ध भगवानमें उत्पाद-व्यय- ध्रुव होते ही रहते हैं। प्रत्येक द्रव्यमें उत्पाद-व्यय-ध्रुव होते हैं। परमाणुमें भी होते हैं और सिद्धमें भी होते हैं। कारणशुद्धपर्याय अलग है।
मुमुक्षुः- वह तो द्रव्यकी भाँति..
समाधानः- द्रव्यमें अनादि अनन्त त्रिकाल है, वह अलग है।
मुमुक्षुः- उसे ध्रुवकी तरह लेना?
समाधानः- ध्रुव जैसी है, अनादि अन्त है, वह अलग है।
मुमुक्षुः- उत्पाद-व्यय उसे लागू नहीं पडते।
समाधानः- वह नहीं, वह तो अनादि अनन्त ध्रुव है। सिद्ध भगवान स्वयं शुद्धरूप परिणमित हो गये। केवलज्ञानकी पर्याय परिणमित होती ही रहती है, आनन्दकी पर्याय (आनन्दका) कार्य लाये। प्रत्येक गुणकी पर्याय (होती ही रहती है)। उसमें अनन्त गुण हैं, अनन्त गुणकी पर्याय कार्य करती रहती है। उसमें ऐसी क्रिया होती ही रहती है, सिद्ध भगवानमें।
मुमुक्षुः- आनन्दका वेदन उन्हें होता है?
समाधानः- आनन्दका वेदन आदि क्रिया होती रहती है। सिद्ध भगवान बिलकूल कूटस्थ नहीं है।
मुमुक्षुः- साथमें निर्मल पर्यायका परिणमन..
समाधानः- निर्मल पर्यायका परिणमन सिद्ध भगवानमें पूर्ण रूपसे होता रहता है। स्वानुभूतिमें अंश प्रगट हुआ और सिद्ध भगवानमें पूर्ण कार्य होता है।
मुमुक्षुः- ज्ञान, दर्शन, चारित्रमें ज्ञानकी पर्याय..
समाधानः- दर्शन मुख्य, कोई अपेक्षासे ज्ञानको मुख्य लेते हैं, कोई अपेक्षासे दर्शनको लेते हैं। सम्यग्दर्शन मोक्षमार्गमें कार्य करता है, इसलिये सम्यग्दर्शन (मुख्य है)। लेकिन पहले मार्ग जाननेके लिये ज्ञान होता है, इसलिये ज्ञान लेते हैं। फिर मुक्तिमार्गमें सम्यग्दर्शन मुख्य है। दोनों अपेक्षासे दोनों लेते हैं।
समधानः- गुरुदेव तो गुरुदेव थे, गुरुदेव तो कोई अलग ही थे। शाश्वत रहें, ऐसी सबकी भावना होती है। भावना अनुसार इस कुदरतके आगे किसीका कुछ नहीं चलता। वह बात कोई कह सकता है? गुरुदेवके गुणका वर्णन.. गुरुदेव तो महापुरुष इस पंचम कालमें जन्मे, महाभाग्यकी बात है। सबको उनकी वाणी मिली, कोई अतिशयतायुक्त सातिशय वाणी थी। सबको आत्मा दिखे ऐसी उनकी वाणी थी। भेदज्ञान हो जाये, स्वयंके पुरुषार्थकी मन्दतासे जीव अटकता है। बाकी उनकी वाणी तो कोई अलग ही