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थी। उनका द्रव्य तीर्थंकरका, इस पंचमकालमें पधारे कहाँ-से? महाभाग्य, पंचमकालका महाभाग्य कि गुरुदेव यहाँ पधारे। उनके गुणोंका वर्णन क्या करें? गुरुदेव तो सर्वोत्कृष्ट इस पंचमकालमें थे।
मुमुक्षुः- प्रज्ञा खीले तो होता है, तो प्रज्ञा खीलानेकी कला कैसी होती है?
समाधानः- भले बुद्धिसे, विचारसे नक्की करे। पहले तो बुद्धिसे, विचारसे नक्की करना होता है। चारों ओरसे युक्तिसे, न्यायसे नक्की करे। लेकिन प्रज्ञा तो किसे कहते हैं? ज्ञायकको पहचाने तो उसे प्रज्ञा कहते हैं। ज्ञायकको पहचानकर कि यह मैं ज्ञायक, यही ज्ञायक है। जिस क्षण रागादि होते हैं, उसी क्षण यह ज्ञान है और यह राग है, ऐसे भिन्न करे तो यहाँ प्रज्ञा शुरू होती है।
मुमुक्षुः- क्षण-क्षणमें अनुभव होता जाता है।
समाधानः- हाँ, क्षण-क्षणमें उसे भेदज्ञान वर्तता ही है। उसे प्रज्ञा कहते हैं। (उसके पहले) प्रज्ञा नहीं है। पहले तो बुद्धिसे ही नक्की करना पडता है। पहले साधन तो उसे बुद्धि ही होती है। बुद्धिसे नक्की करे।
मुमुक्षुः- आगे बढनेके बाद खीलती है?
समाधानः- हाँ, बादमें होती है। बुद्धि, बुद्धिके साथ उसे ज्ञायककी महिमा होनी चाहिये। उसे विरक्ति होनी चाहिये कि इसमें कहीं भी सुख नहीं है। सुख आत्मामें है। ऐसा सब होना चाहिये। जिज्ञासा, भावना, बुद्धिसे नक्की (करना)।
मुमुक्षुः- जीवन उतना उस रूप हो जाना चाहिये।
समाधानः- हाँ। सच्चा तो उसे बादमें प्रगट होता है। पहले तो बुद्धिसे नक्की करता है। बुद्धि और बुद्धिके साथ शुष्कता नहीं होती। मुझे आत्माका करना है। ज्ञायककी महिमा आये, ये सब आकूलता है, सुख कहीं भी नहीं है। ये विकल्पकी जालमें सुख नहीं है, ऐसे उससे विराम लेकर अन्दर जाये। विराम यानी उसे उस जातका वैराग्य आता है। और बुद्धिसे नक्की करे।
मुमुक्षुः- बहुत कठिन है।
समाधानः- कठिन है, लेकिन स्वयंका है। करे तो हो सके ऐसा है। कहीं दूर नहीं है। समीप (है), स्वयं ही है। अनादिसे दूसरा अभ्यास हो गया है इसलिये कठिन लगता है। इसका अभ्यास ऐसा हो जाये, ऐसा प्रयास करे, बारंबार करे तो सहज हो जाता है। परन्तु दूसरा अभ्यास ज्यादा है और यह अभ्यास कम है, इसलिये कठिन लगता है।
मुमुक्षुः- बाहर खिँचा जाता है।
समाधानः- बाहर खिँचाव रहता है। उस प्रकारका परिचय हो गया, इसलिये