Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-४)

३४८ हुआ, जिसे शान्ति नहीं है, अशान्ति है वह क्षणभर भी टिक नहीं पाता। ऐसी जिसे अन्दरसे उलझन हो कि ये विकल्प अब चाहिये ही नहीं, विकल्पकी जालमें उलझा हुआ, विभावकी आकुलतामें उलझ गया है, अन्दरसे यथार्थरूपसे उलझा हो, व्यग्रता हो तो उसमें टिक नहीं पाये। तो अपनी ओर उसकी परिणति मुडे बिना रहे ही नहीं। ज्ञायकको पहचाने बिना रहे ही नहीं। ज्ञायकको ग्रहण किये बिना रहे ही नहीं, ज्ञायकका शरण लिये बिना रहे ही नहीं, यदि यथार्थ उलझा हो तो।

यथार्थरूपसे उलझा हुआ मनुष्य किसीका भी आधार लेना जाता है। वैसे ये अन्दरसे उलझनमें आया हुआ निज स्वरूपका आधार लिये बिना रहता ही नहीं। वह निज स्वभावको ग्रहण कर ही लेता है। इसलिये यदि यथार्थ उलझनमें आये और यथार्थ जिज्ञासा जागृत हो तो स्वभावका आधार वह अंतरमेंसे लिये बिना रहता ही नहीं। स्वभावको पहचान लेता है।

मुमुक्षुः- भावना-भावनामें बहुत अंतर होता है। एक भावना ऐसी है कि जो अंतरभेद कर देती है। आपने यह अंतिम बात कही थी।

समाधानः- भावना ऐसी हो को अंतरमें भेदज्ञान होकर ही छूटकारा हो। ऐसी भावना उग्र होती है। दूसरी तो मन्द-मन्द भावना, ऊपर-ऊपरसे भावना, मन्द-मन्द पुरुषार्थ रहा करे, वह भावना नहीं। परन्तु अंतरभेद करे अर्थात अंतरसे भेदज्ञान कर दे, ऐसी भावना तो कोई अलग होती है कि अन्दरसे चैतन्य चैतन्यके मार्ग पर उसे परिणति प्रगट हो और विभाव परिणतिको भिन्न करता है।

विभाव परिणति भले हो, चैतन्यकी अल्पता, न्यूनताके कारण होती है। परन्तु वह भेदज्ञान करता है कि मैं तो चैतन्य हूँ। यह मेरा स्वभाव नहीं है। इसलिये चैतन्यकी ओर परिणति दौड जाती है और अपने स्वभावको ग्रहण कर लेती है। वह अंतरभेद कर देती है।

मुमुक्षुः- और आपके वचनामृतमें ऐसा भी आता है कि ऊपर-ऊपरसे कर, परन्तु चाहे जैसै उस मार्ग पर जा।

समाधानः- हाँ, उस मार्ग पर जा। अंतरमें तेरा लक्ष्य, भावना ऐसी रख कि गहराईमें जाने जैसा है। करना गहराईमें है, अभी बहुत न्यूनता है, ऐसा तू नक्की कर कि मुझमें न्यूनता है। परन्तु लक्ष्य गहराईसे (करना है)। परन्तु ऊपरसे हो तो उसको छोड नहीं देना। और अशुभमें आनेको नहीं कहते हैं। परन्तु तुझे तीसरी भूमिकामें आनेको कहते हैं। हम ऊपर-ऊपर जानेको कहते हैं, वहाँ तू नीचे क्यों गिर रहा हैै? ऐसा आचार्यदेव कहते हैं।

हमारे कहनेका आशय यह है कि तू तीसरी शुद्ध स्वभावकी भूमिका प्रगट कर।