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शुभ तो बीचमें आता है, परन्तु शुभ तेरा स्वभाव नहीं है। वह शुभ एवं अशुभ समान कोटिके हैं, ऐसा तू समझ। और आत्मा तीसरी भूमिका अमृतकुम्भ है उसे ग्रहण कर। इसलिये ऊपर जानेको कहते हैं। अतः ऊपर-ऊपरसे तेरी भावना हो तो उसे छोडनेको नहीं कहते हैं, परन्तु गहरी भावना प्रगट कर। शुद्ध स्वभावमें जा सके ऐसी भावना प्रगट कर।
इसलिये उसे छोडकर फिर अशुभमें जाना, ऊपर-ऊपरकी भावना आये तो वह भावना कोई कामकी नहीं है, ऐसा कहकर छोडनेको नहीं कहते हैं, परन्तु तू ऊँची (भावना) प्रगट कर, ऊँची परिणतिको प्रगट कर। ऐसा कहनेका आशय है। भगवानके मन्दिरमें दर्शन करता हुआ, भगवानके मन्दिर पर टहेल लगाता हुआ, टहेल लगाते हुए यदि भगवानके द्वारा न खूले तो थककर वापस मत आना, भगवानके द्वार खूल जायेंगे। तू टहेल लगाना छोडना मत।
चैतन्य-मन्दिरमें तू टहेल लगा, मैं चैतन्य हूँ, ऐसा ऊपर-ऊपरसे तुझे समझमें आये तो उसे छोडना मत। वह छोडना मत, यदि तुझे पहचान न हो तो। पहचान नहीं हो तबतक वहाँ टहेल लगाते ही रहना। उसमें लक्ष्य रखना कि मुझे अभी बहुत आगे जाना है। तो तेरा परुषार्थ उठने पर चैतन्य-मन्दिर खुलनेका तुझे अवकाश है। तू दूर जायगा तो ऊलटा दूर चला जायगा।
भगवानके मन्दिरसे तू दूर जायगा तो ऊलटा दूर चला जायगा। इसलिये दृष्टि बराबर रखना कि अभी मुझे अन्दर जानेका है। ऊपर-ऊपरकी भावनासे प्रगट नहीं होता, परन्तु अन्दरकी भावना प्रगट करनेके लिये तू समझना कि यह ऊपरका है। अभी अन्दरका करनेका मुझे बाकी है। ऐसे ज्ञान यथार्थ करना, तो आगे बढ सकेगा। ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसा ऊपर-ऊपरसे हो तो भी अंतरमें जाना है, वह भावना मत छोडना। उसे छोडनेको नहीं कहते हैं।
अन्दरकी भावना ऐसी आये कि भेदज्ञान हो जाय, अंतरभेद कर दे, चैतन्य-मन्दिरके द्वारा खोलकर चैतन्य भगवान प्रगट हो, वह भावना अलग होती है। परन्तू तू भावना दृढ करना तो कभी तेरा पुरुषार्थ उग्र होगा तो अन्दर जा सकेगा। इसलिये वह द्वार छोडकर अशुभमें जानेको नहीं कहते हैं। शुभमें खडाहै, लेकिन दृष्टि शुद्ध पर रखना।
मुमुक्षुः- माताजी! कहा था न कि,
समाधानः- वह तो अपनी मन्दता देखकर पहचान सके, ये मन्द-मन्द चलता है, उग्रता नहीं हो रही है इसलिये उग्रताकी क्षति है। मन्द-मन्द, मन्द-मन्द चले। धीरी गतिसे चलनेवालेको देर लगती है। जिसे उग्रता हो, वह त्वारासे पहुँच जाता है। धीरी गतिसे चलनेवाला वहाँ खडे रहकर चले तो कैसे पहुँचे? उसे ख्याल आये कि मैं नहीं