३५२ बाहर जाय, उसी क्षण, दूसरी क्षण नहीं है, उसी क्षण उसे भिन्न ज्ञायककी धारा चलती ही है। ऐसी सहज दशा होती है। परन्तु जिसे दशा नहीं है उसे तो उपयोग बाहर जाय तो भावना रखे कि करना कुछ और है अंतरमें। उपयोग बाहर जाता रहता है। स्वयं भावना रखे। जिसकी भेदज्ञानकी धारा सहज हो उसे तो क्षण-क्षणमें वर्तती ही है। कोई बार तो विकल्प छूटकर स्वानुभूतिमें जाय, पुनः उपयोग बाहर आये तो भी एकत्व तो होता ही नहीं। भेदज्ञानकी धारा क्षण-क्षणमें चलती ही है।
मुमुक्षुः- आपने उसमें ऐसा भी लिया है कि कोई बार तो सहज-सहज ढेर लग जाय और कोई बार जैसा है वैसा रहे।
समाधानः- वह तो उसकी परिणामकी धारा जैसे उठे उस प्रकारसे होता है। परिणामकी धारा है, पुरुषार्थकी गति है। चौथे गुणस्थानमें, पाँचवे गुणस्थानमें उसकी जैसी पुरुषार्थ धारा प्रगट हो...
कोई बार चैतन्य भगवानकी कृपासे द्वार खुल जाते हैं। मुमुक्षुः- आपकी कृपा है, माताजी! श्रीमदजीने कहा है कि, ज्ञानीके एक-एक शब्दमें अनन्त आगम रहे हैं। आपका जितना है उतना हम पकड नहीं सकते हैं। वाणीमें तो बहुत आया है, बहुत आया है। सब तालेकी एक ही चाबी है। आप कहते तो तब मधुर-मधुर लगता है और जब पढते हैं तब उतना अन्दरसे... माताजी! इसलिये ऐसा होता है।
मुमुक्षुः- तो उपशम सम्यग्दर्शन जो होता है, वह पुरुषार्थकी कमजोरी यदि छूट जाय तो उसका संसार भी अर्ध पुदगलपरावर्तन ही ज्यादासे ज्यादा रहता है या फिर अनन्त संसारका बन्ध है?
समाधानः- अर्ध पुदगल ही रहता है।
मुमुक्षुः- छूटनेके बाद? छूट जाय तब भी?
समाधानः- हाँ, तो भी अर्ध पुदगल (ही रहता है)। शास्त्रमें अर्ध पुदगल ही आता है।
मुमुक्षुः- ज्यादा तो नहीं होता?
समाधानः- नहीं, ज्यादा नहीं होता, अर्ध पुदगल ही रहता है। शास्त्रमेंं ऐसा आता है। उपशम होवे, क्षयोपशम होवे, जो भी हो..
मुमुक्षुः- अगर पुरुषार्थकी कमजोरीसे छूट भी जाय तो भी उससे ज्यादा समय नहीं होता?
समाधानः- उससे ज्यादा नहीं होता। अर्ध पुदगल ही रहता है। जब स्वरूपकी ओर वह परिणति गयी, बादमें उसे संसारका अंत आ जाता है। छूट जाता है तो