Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 187.

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ट्रेक-१८७ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- ... परन्तु माताजी! निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध अत्यन्त घनिष्ट है। एक वचनकी जो असर होती है, वह पढनेसे विचार नहीं आता।

समाधानः- परन्तु फिर भी स्वयं स्वतंत्र है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- स्वतंत्र है।

मुमुक्षुः- कितना, माताजी! ..

समाधानः- गुरुदेवने मार्ग बताया है। स्पष्ट करके गये हैं। करनेका स्वयंको है।

मुमुक्षुः- ... कल्याण करना है ऐसी गरज नहीं है।

समाधानः- अपनी उतनी तीखी गरज लगे तो हुए बिना रहे ही नहीं।

मुमुक्षुः- सबमें निज अस्तित्वका जोर लेना? माताजी!

समाधानः- सबमें निज अस्तित्वका जोर। मैं ज्ञायक, मैं चैतन्य, ज्ञायकका अस्तित्व- अपना अस्तित्व। तेरा अस्तित्व तू ग्रहण कर तो तू स्वयं जैसा है वैसा प्रगट होगा। तेरा अस्तित्व तू ग्रहण कर तो तेरा जैसा स्वभाव है, वह स्वभाव प्रगटरूपसे परिणमित हो जायगा। तेरा अस्तित्व तूने ग्रहण नहीं किया है इसलिये विभावपर्याय प्रगट होती है। तेरा अस्तित्व तू स्वयं ग्रहण कर तो उसमेंसे स्वभावपर्याय प्रगट होगी। सबमें अपना अस्तित्व ग्रहण करना है।

मुमुक्षुः- माताजी! उपयोग बाहर जाय तो क्या लेना? उपयोग तो शुभ-अशुभमें जुडता है।

समाधानः- उपयोग बाहर जाय तो जिसकी सहज दशा है उसे तो अपनी परिणति चालू रहती है। इसे तो उपयोग बाहर जाय तो अन्दर ऐसा भाव रहे कि करनेका कुछ अलग है और ये बाहर जा रहा है, एकत्वबुद्धि होती है। मैं तो भिन्न चैतन्य हूँ, ऐसी भावना रख सकता है। जिसकी सहज परिणति हो उसकी तो अलग बात है। उसे तो ज्ञायककी धारा निरंतर चालू रहती है। उपयोग बाहर जाय तो भेदज्ञान क्षण-क्षण, क्षण-क्षण उसे याद नहीं करना पडता। एकबार एकत्व हो जाय और फिर याद करना पडे कि मैं भिन्न हूँ, ऐसा उसे नहीं करना पडता। उसे तो जब भी उपयोग