ગૃહસ્થાશ્રમમાં (આત્મહિત) કરી શકાય? 0 Play गृहस्थाश्रममां (आत्महित) करी शकाय? 0 Play
પૂજ્ય ગુરુદેવશ્રીએ મતિજ્ઞાનને મર્યાદામાં લાવવાની વાત કરી, દ્રષ્ટિ અને મતિ-શ્રુતજ્ઞાનમાં કાંઈ ફર્ક ખરો? 2:00 Play पूज्य गुरुदेवश्रीए मतिज्ञानने मर्यादामां लाववानी वात करी, द्रष्टि अने मति-श्रुतज्ञानमां कांई फर्क खरो? 2:00 Play
અતિ તીવ્ર રુચિ હોય તો શું દ્રષ્ટિ અંદર ચોંટે? 4:25 Play अति तीव्र रुचि होय तो शुं द्रष्टि अंदर चोंटे? 4:25 Play
ગુરુ પાસે સાંભળી એકદમ રુચિ થઈ અને ચારિત્ર આવી જાય છે તો એકદમ કેવું બળ આવી જતું હશે? 6:50 Play गुरु पासे सांभळी एकदम रुचि थई अने चारित्र आवी जाय छे तो एकदम केवुं बळ आवी जतुं हशे? 6:50 Play
આચાર્યો અને ગુરુદેવશ્રીએ જે માર્ગ બતાવ્યો તેનું યથાર્થ જ્ઞાન કરી ભેદજ્ઞાન કરવું તે જ માર્ગ છે. 9:25 Play आचार्यो अने गुरुदेवश्रीए जे मार्ग बताव्यो तेनुं यथार्थ ज्ञान करी भेदज्ञान करवुं ते ज मार्ग छे. 9:25 Play
ભેદજ્ઞાન કરનેકે લિયે બાહ્યમેં સબ જગહ અશાંતિ હૈ તો ક્યા મંદિરમેં બૈઠકર કર સકતે હૈં? 10:15 Play भेदज्ञान करनेके लिये बाह्यमें सब जगह अशांति है तो क्या मंदिरमें बैठकर कर सकते हैं? 10:15 Play
નિશ્ચયમાં કેવી રીતે કૂદકો મારવો? 11:50 Play निश्चयमां केवी रीते कूदको मारवो? 11:50 Play
ચૈતન્યને ગ્રહણ કરવામાં વાંચન-મનન, સત્પુરુષનું મિલન – શું બધું ઉપયોગી થાય? 13:50 Play चैतन्यने ग्रहण करवामां वांचन-मनन, सत्पुरुषनुं मिलन – शुं बधुं उपयोगी थाय? 13:50 Play
આ વાતના પોષણ માટે શું એકાંત વધારે પડતું હોવું જોઈએ? 14:50 Play आ वातना पोषण माटे शुं एकांत वधारे पडतुं होवुं जोईए? 14:50 Play
ક્રમમાં આવી પડેલા ઔદયિક ભાવને આઘા-પાછા કરી શકાતા નથી તે સમયે ....... 16:00 Play क्रममां आवी पडेला औदयिक भावने आघा-पाछा करी शकाता नथी ते समये ....... 16:00 Play
જ્ઞાનીને શુભભાવનો નિષેધ વર્તે છે, છતાં તેમને દેવ- ગુરુ-શાસ્ત્ર પ્રત્યે અર્પણતા ખૂબ હોય છે હવે જેનો નિષેધ વર્તે તેમના પ્રત્યે અર્પણતા કેવી રીતે હોય છે? 17:30 Play ज्ञानीने शुभभावनो निषेध वर्ते छे, छतां तेमने देव- गुरु-शास्त्र प्रत्ये अर्पणता खूब होय छे हवे जेनो निषेध वर्ते तेमना प्रत्ये अर्पणता केवी रीते होय छे? 17:30 Play
मुमुक्षुः- बहिन! उनका कहना है कि हम गृहस्थाश्रममें कर सकते हैं?
समाधानः- आत्माकी रुचि तो कर सकते हैं न। अन्दर रुचि रहनी चाहिये कि आत्माका कैसे हो? वांचन, विचार ऐसा तो हो सकता है। दूसरा विशेष करना हो तो अन्दरकी लगन लगानी। जो करना हो वह हो सकता है। प्रथम मूल नींव तो सम्यग्दर्शनका है। सम्यग्दर्शन कैसे प्रगट हो, पहले तो वह करने जैसा है। इसमें बाहरसे करना है (ऐसा तो है नहीं)। अंतर दृष्टि करने जैसी है वह करने जैसा है। सम्यग्दर्शन कैसे हो? अनादिसे वह प्रगट नहीं हुआ है, दूसरा सब हो चूका है। बाहरका सब प्राप्त हो चूका है, एक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ है। उसकी तैयारी तो गृहस्थाश्रममें हो सकती है। उसका तत्त्व विचार, वांचन, शास्त्र अभ्यास, आत्मा तत्त्व भिन्न है उसकी प्रतीत, दृढता कैसे हो वह सब करना। वह सब तो गृहस्थाश्रममें हो सकता है।
मुमुक्षुः- ये तो मुंबईकी प्रवृत्तिमें..
समाधानः- प्रवृत्तिमें ऐसा हो जाय और उसमें भी मुंबईकी प्रवृत्तिमें अन्दर आत्माको पहिचानना, उस प्रवृत्तिमें कितना समय व्यतीत हो जाय उसमेंसे समय खोजना मुश्किल पडे ऐसा है। लेकिन उसमेंसे समय बचाकर कुछ विचार, कुछ वांचन, मन्दिर जाना आदि... पार्ला रहो वहाँ मन्दिर (नहीं है)। .. अनेक जातके विकल्प रहे।
मुमुक्षुः- यहाँ सुचारुरूपसे रुचि रहती है, वह मुंबईमें नहीं हो सकता।
समाधानः- प्रवृत्तिकी जाल सब दिमागमें आ जाय। ये तो गुरुदेवकी साधनाभूमि है और सब शान्ति (है)। तत्त्वविचारका माहोल है। यहाँ दूसरी बात है। विचार, वांचन, कुछ आना-जाना रखे तो हो।
मुुमुक्षुः- मति-श्रुतको मर्यादामें लानेकी बात की और दृष्टि, उस मति-श्रुत औरदृष्टिमें कुछ अंतर है?
समाधानः- मति-श्रुत है वह तो ज्ञानका उपयोग है। दृष्टि है वह सम्यग्दर्शनकीपर्याय है।
मुमुक्षुः- श्रद्धाकी?
समाधानः- हाँ, वह श्रद्धाकी पर्याय है। मति-श्रुतका उपयोग जो बाहर जाता