है, उसे अंतरमें लाना वह निर्विकल्प स्वानुभूतिकी बात है। बाहर जो मति और श्रुतका उपयोग जाता है, उसे समेटकर अंतरमें ला। इसलिये जो उपयोग बाहर जाता था, उसे अंतरमें स्थिर कर। दृष्टि तो चैतन्य पर स्थापित कर दे कि मैं चैतन्य अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य हूँ। उसकी दृष्टि चैतन्य पर स्थापित करके, फिर उपयोग जो बाहर जाता है, उस उपयोगको समेटकर अपनी ओर ले आ। इसलिये विकल्प छूट जाय। विकल्पकी जाल छूटकर उपयोग तेरेमें स्थापित कर दे। वह निर्विकल्प स्वानुभूतिके समयकी बात है। उपयोग बाहर जा रहा है उसे अंतरमें लाये।
मुमुक्षुः- यानी जो महेनत करते हैं उन सबको लागू पडता है।
समाधानः- सबको लागू पडता है। सम्यग्दर्शनके सन्मुख, अन्दर सन्मुखताकी बात है। अंतरमें निर्विकल्प स्वानुभूति हो उस वक्त मति-श्रुतका उपयोग अपनेमें आ जाता है। इसलिये उसका उपाय बताया है कि जो पर प्रसिद्धिका कारण मति-श्रुत है, उसे अपने सन्मुख कर। आत्म प्रसिद्धि यानी अपनेमें स्थिर कर। इसलिये विकल्प छूटकर स्वानुभूति प्रगट होगी, ऐसा कहते हैं।
पहले उसकी प्रतीति यथार्थ करके, मति-श्रुतका उपयोग भी तेरे सन्मुख कर दे। उसका उपाय बताया है। सम्यग्दर्शन, स्वानुभूति होने पूर्वका वह उपाय बताया है। उपाय बताया है। निर्णय करके मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी दृढ प्रतीति, निर्णय करके मति-श्रुतका उपयोग भी तेरे सन्मुख कर। बाहर, मति-श्रुतका पर प्रसिद्धिका जो कारण, दूसरी ओर जो उपयोग जाता है, उसे तेरे सन्मुख (कर)। तू तेरेमें स्थापित कर दे, ऐसा कहते हैं।
मुमुक्षुः- बहिन! उसकी अति तीव्र रुचि हो तभी अन्दर दृष्टि हो न। वह रुचि कैसी होती है?
समाधानः- परपदार्थ और विभावकी ओर उसे एकदम विरक्ति आकर अपने स्वभावको ग्रहण कर लेता है। वह तो उसकी तीव्र रुचि हो तो ही हो न, बिना रुचि कहाँसे हो?
मुमुक्षुः- वह रुचिकी जात कैसी है?
समाधानः- वह जात ही अलग होती है। भेदज्ञान करके जो रुचि प्रगट हो, यथार्थ रुचि, उसे रुचि कहो, प्रतीति कहो, यथार्थ दृष्टि कहो, वह सब सम्यग्दर्शनकी पर्याय है। सम्यग्दर्शन होने पूर्वकी यथार्थ रुचि है। भेदज्ञान करनेकी यथार्थ रुचि। विभावसे छूटकर स्वभावको ग्रहण करता है। वह यथार्थ रुच है।
आत्माका करना है, आत्माका करना है, वह अमुक प्रकारकी रुचि है। परन्तु जो स्वभावको ग्रहण करता है वह तो यथार्थ रुचि है। .. पहचान लेता है। यह मैं