Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-४)

३६२ चैतन्य हूँ और यह मैं नहीं हूँ, ऐसे यथार्थ भेदज्ञान करता है।

मुमुक्षुः- फिर तो उसे अपनेआप उसे अन्दर मार्ग मिल जाता है?

समाधानः- मार्ग स्वयं ही खोज लेता है। जो गुरु द्वारा मार्ग मिला है, वह मार्ग अनुसार अंतरमेंसे स्वभावको ग्रहण करता है, भेदज्ञान करता है कि ये शुभाशुभभाव भी मेरा स्वभाव नहीं है। शुभ बीचमें आता है, परन्तु चैतन्यका मूल स्वरूप नहीं है। इसलिये अपना यथार्थ स्वभाव, जो गुरुदेवने कहा, देव-गुरु-शास्त्र जो कहते हैं, उस अनुसार स्वयं ग्रहण करके अपना मार्ग स्वयं ही अन्दरसे खोज लेता है। यह स्वभाव है, यह विभाव है उसका लक्षण पहिचान लेता है।

अनुपम मार्ग है, अनादिका अनजाना है। अनादि कालसे बाह्य क्रियामें धर्म मानता है, शुभभाव थोडा किया तो धर्म मान लिया। लेकिन वह तो पुण्यबन्धका कारण है। मुक्तिका मार्ग तो अंतरमें रहा है।

मुमुक्षुः- गुरुके पास उपदेश सुने और सम्यग्दर्शन ओर तुरन्त चारित्र जिन जीवोंको होता होगा, उन जीवोंको पहले तो रुचि नहीं थी, एक शब्द सुनने पहले रुचि भी नहीं थी। फिर एकदम ऐसी रुचि भी हो गयी, वह तो कितना उसे बल आता होगा।

समाधानः- स्वभाव-ओरका बल। रुचि अर्थात यथार्थ प्रतीति। प्रथम तो जो गुरु कहते हैं उसे सुनता है। गुरुने क्या कहा उसका आशय ग्रहण करता है। गहराईसे आशय ग्रहण करता है। उस जीवको आत्माका करना है, ऐसी रुचि होती है, परन्तु जो यथार्थ रुचि अन्दर स्वभाव ग्रहण हो, ऐसी रुचि तो अन्दर पहचान हो तब उसे होती है। परन्तु वह अंतर्मुहूर्तमें सब कर लेता है।

शिवभूति मुनिने अंतर्मुहूर्तमें कर लिया। गुरुने कहा, मातुष और मारूष भूल गये। कोई राग करना नहीं, द्वेष करना नहीं। वह तेरा स्वभाव नहीं है। ऐसा गुरुका आशय था। वह शब्द भूल गये। गुरुने क्या कहा, वह भूल गये। वह औरत दाल और छिलका भिन्न-भिन्न करती थी। मेरे गुरुने यह किया कहा है, भिन्नता करनी। ये दाल और छिलका भिन्न-भिन्न है। वैसे यह स्वभाव भिन्न है और विभाव भिन्न है। ऐसे उसने आशय ग्रहण कर लिया और अंतरमें भेदज्ञान हो गया। पुरुषार्थसे भेदज्ञान कर लिया। भेदज्ञानकी उग्रता करते-करते अंतरमें लीनता बढी, यथार्थ मुनिदशा हो गयी, सम्यग्दर्शन हो गया। यथार्थ मुनिदशा हो गयी। अंतर्मुहूर्तमें पहुँच गये।

मुमुक्षुः- वह तो इतना जल्दी हो गया..

समाधानः- अपना स्वभाव है न। यदि अन्दर पुरुषार्थसे पहुँचे तो देर नहीं लगती। और जो अनादिका अभ्यास है उसीमें तनीजता है तो कितना काल निकाल देता है। और यदि स्वभाव ग्रहण करे तो अंतर्मुहूर्तमें (हो जाता है)।