३६८ होता हो तो उसकी रुचि वह स्वयं ही ग्रहण और पकड सकता है कि यह रुचि ऐसी है कि आत्मा प्रगट करके ही छूटकारा है। अपनी रुचिको स्वयं पकड सकता है। उसमें काल लगे, वह एक अलग बात है।
गुरुदेवने अंतर दृष्टिका कैसा मार्ग बताया। सब बाहरसे यात्रा करनेको पैदल आते हैं। मानों उसमेंसे कहीं धर्म प्राप्त हो जायगा। लेकिन वह धर्म कहीं दूर रह जाता है, और बाहरसे सब करता रहता है कि ऐसा करनेसे मिलेगा, ऐसा करनेसे मिलेगा।
गुरुदेवने अंतरकी दृष्टिमें मार्ग बताया (कि) अंतर परिणति पलट दे। पैदल चलकर दो-दो महिनेसे यात्रा करते हैं। (मार्ग तो) दूर ही रह जाता है। ऐसे अनन्त कालमें जीव ऐसा ही करता है। पर्वत पर जाकर आताप सहन करे, सर्दीमें ठण्ड सहन करे, तो भी आत्मा तो दूर ही दूर रह जाता है। अंतर सतकी रुचि प्रगट हुए बिना, अन्दर पुरुषार्थकी गति आत्माकी ओर जाती नहीं और बाहरसे कुछ आ जाता है, ऐसा मान लेते हैं।
मुमुक्षुः- .. सब भ्रमणा निकाल दी।
समाधानः- सब भ्रमणा निकाल दी और मार्गको ऐसा स्पष्ट कर दिया है कि कहीं किसीकी भूल न रहे, उतना स्पष्ट कर दिया है।
मुमुक्षुः- तू क्रोडो मन्दिर बना, तेरा कुछ कल्याण नहीं होगा। मैं तो चमक गया था। क्या बात है ये सब! अद्भुत बात!
समाधानः- दृष्टि बाहर ही बाहर। अंतर चैतन्यकी ओर दृष्टि न जाय तबतक कुछ नहीं मिलता है। गुरुदेवने सबको यथार्थ मार्ग, दृष्टि बता दी है। चलना स्वयंको है।
मुमुक्षुः- यथार्थरूपसे गुरुदेवकी भक्ति तो आपके पास..
समाधानः- अभी तो दीक्षा यथार्थरूपसे किसीको समझमें नहीं आती। छोड दिया इसलिये आत्माका कल्याण हो गया, ऐसा मानते हैं। पुण्य बान्धे, दूसरा कुछ नहीं। परिणाम अच्छे हो तो पुण्य बन्धे, बाकी कुछ नहीं। जो किया वही चक्कर। घाँचीका बैल जहाँ छोडे तो वहींका वहीं चक्करमें खडा हो।
मुमुक्षुः- पूरा मार्ग..
समाधानः- हाँ, दृष्टि अंतरमें कर तो अंतरमेंसे प्रगट हो। शुद्धात्माको पहिचाने। उसमें शुद्धात्माकी पर्याय प्रगट हो, उसमेंसे स्वानुभूति, सब उसमें होता है। भेदज्ञान प्रगट होता है। वही भावना रखने जैसी है, वही करनेका है। ध्येय तो एक ही-ज्ञायक प्रगट हो। वही करनेका है। वांचन, विचार सबमें लक्ष्य तो एक ही, ध्येय तो एक ही करना है।
मुमुक्षुः- अनन्त जीव ऐसे ही पुरुषार्थ करके मोक्ष पधारे। गुरुदेवने कहा कि