Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-४)

३७८ लक्षण है। परन्तु फिर अहंभाव वास्तविक हो सके कि मैं यही हूँ और यह नहीं हूँ। ऐसा होना कठिन लगता है।

समाधानः- परिणति विभाव-ओर है। परद्रव्य, परद्रव्यके भाव, विभावभाव उसके साथ जो ज्ञान है, उसे उपयोग स्थूल हो गया है। और उपयोगकी ओर चैतन्यको सूक्ष्मरूपसे ग्रहण करना वह उसे बुद्धिसे ग्रहण करे, लेकिन उस तरह टिकाना कि यह अस्तित्व ही मैं हूँ, चैतन्यका अस्तित्व ज्ञानलक्षण सो मैं हूँ, ऐसा त्रिकाल शाश्वत मैं हूँ कि यह ज्ञानलक्षण अस्तित्व सदाके लिये स्वतःसिद्ध है। उसे ग्रहण करके टिकाना वह उसे ओर अंतरकी परिणति स्वकी ओर अमुक प्रकारसे परिणति मुडे तो दृढ रहे, नहीं तो बुद्धिमें ग्रहण हो। परन्तु परिणति तो उसकी विकल्पके साथ एकमेक हो रही है। एकमेक हो रही है इसलिये उसे ज्ञानको भिन्न करना दुष्कर पडता है।

उसे यह ज्ञान सो मैं और यह मैं नहीं हूँ। वैसा ही मैं हूँ, यही मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ, ऐसी परिणति हमेशा प्रगट करनी उसके लिये पुरुषार्थ हो तो होता है। नहीं तो उसका जो अनादिका वेग है, उस वेगमें वह चला जाता है। बुद्धिमें ग्रहण किया कि यह ज्ञान सो मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ, उसे बुद्धिमें भूल जाय तो बारंबार ग्रहण करता रहे। परन्तु परिणति तो विकल्पके साथ एकमेक हो रही है। उस परिणतिको वह भिन्न नहीं करता है, तबतक उसे यथार्थ प्रकारसे भेदज्ञान नहीं होता है। भेदज्ञानकी परिणति नहीं होती है। बुद्धिसे ग्रहण करता है। परन्तु भेदज्ञानकी परिणति यदि हो तो ही उसका भेदज्ञान यथार्थ है। तो उसने अपना अस्तित्व यथार्थ ग्रहण किया है। नहीं तो वह बुद्धिमें ग्रहण करता है, परन्तु परिणति तो उसके साथ एकमेक-एकमेक होती ही रहती है। जो अनादिका प्रवाह है उसीमें चला जाता है।

राग और ज्ञान, राग और ज्ञान एकसाथ-एकसाथ ऐसे ही चलता ही है। परन्तु जिस समय राग और ज्ञान साथमें है, उसी क्षण यह मैं नहीं हूँ, यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ, ऐसी परिणति करनेके लिये उसे उस जातका सूक्ष्म उपयोग और वैसे उसे अन्दरसे ग्रहण होना चाहिये। वह उसे एकबार ग्रहण हो ऐसे नहीं, बारंबार वह ग्रहण करता ही रहे, तो उसे सहजता हो तो अन्दरसे कुछ यथार्थ भेदज्ञान होनेका अवसर आये। परन्तु एकबार बुद्धिमें बारंबार करता रहे, परन्तु परिणति भिन्न न पडे तबतक यथार्थ भेदज्ञान नहीं होता। परिणति तो साथ ही साथ चलती रहती है। बुद्धिमें ग्रहण करे परन्तु परिणति तो ऐसे ही काम करती रहती है। राग और ज्ञान, राग और ज्ञान साथ-साथ, साथ-साथ होता ही रहता है।

जिस समय राग और ज्ञान साथमें होते हैं, उसी क्षण यह मैं ज्ञान हूँ और यह मैं नहीं हूँ, यह ज्ञान सो मैं हूँ, और यह मैं नहीं हूँ। इस प्रकार प्रतिक्षण उसकी