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मुमुक्षुः- कोई बार तो ऐसा लगता है कि ऐसे ही काल व्यतीत हो जायगा।
समाधानः- ऐसे स्थूल हो जाय तो भी बारंबार उसका अभ्यास करता रहे तो हो सकता है। थोडी देर करे, उतनेमें उपयोग स्थूल हो जाय, टिक सके नहीं। थोडा विचार करने उतनेमें।
मुमुक्षुः- नहीं तो ऐसी स्थिति है कि बाहरमें जो कुछ काम है उतना विकल्प आये, घर बैठनेमें तो दूसरा कोई विचार नहीं है, कुछ नहीं है, इसलिये धून भी यह रहती है। फिर भी जितना चाहिये उस जातका, अभी भी ऐसा लगता है कि ज्ञान ज्ञानमें भिन्न पडे तो कुछ गरमी आ जाय कि यह मैं हूँ और यह भिन्न है। तो वह अभ्यास ज्यादा करनेका..
समाधानः- ज्यादा करनेकी उसे अन्दरमें गरमी आये। विचार करनेसे उपयोग फिरसे स्थूल हो जाय। स्थूल हो जाय इसलिये उसे बार-बार सूक्ष्म करनेके लिये बारंबार दृष्टि करनी पडे। थक जाय, प्रयत्न कम हो जाय, बारंबार करे...
मुमुक्षुः- एक घण्टा, दो घण्टा चला.. फिर
समाधानः- थकान, बाहरसे थकान नहीं, अंतरमेंसे। आगे चले नहीं इसलिये दूसरे विचार आ जाय। भले जाननेके विचार आये, परन्तु ग्रहण करनेमें उसे उपयोग सूक्ष्म करना पडे, उतना धीरा होकर ग्रहण करना पडे तो होता है। ऐसी मेहनत तो उसे प्रथम भूमिकामें चलती ही रहे। क्योंकि जब तक ग्रहण नहीं हुआ है, श्रीमद कहते हैं न, प्रथम भूमिका विकट होती है। इसलिये पहले उसे जिज्ञासाकी भूमिकामें मेहनत चलती रहे। जबतक ग्रहण नहीं हो जाता तबतक।
मुमुक्षुः- ज्ञान भिन्न पड जाय, ज्ञान ज्ञानमें अभ्यास-प्रयत्न करे तो ..
समाधानः- प्रयत्नसे भिन्न पड सकता है। स्वयं ही है, अपना स्वभाव है। इसलिये भिन्न तो पड सकता है। अनन्त मोक्षमें गये, भेदज्ञान करके ही गये हैं। भेदज्ञानके अभ्याससे। भेदज्ञानके अभ्यासमें द्रव्य पर दृष्टि, भेदज्ञान आदि सब उसमें समा जाता है। द्रव्य पर दृष्टि करे इसलिये उसमें भेदज्ञान आ जाता है। यह मैं चैतन्य हूँ और यह मैं नहीं हूँ। ऐसे दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें आ जाते हैं। मैं यह चैतन्य हूँ, मेरा अस्तित्व स्वतःसिद्ध यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ। दोनों उसमें साथमें आ जाते हैं। अभ्यास करनेसे हो सकता है। एकदम हो जाय वह किसीको ही होता है। बहुभाग अभ्यास करनेसे होता है।
छोटीपीपर घिसते-घिसते गुरुदेव कहते थे कि चरपराई प्रगट होती है। छाछ और मक्खन सब इकट्ठा हो तो मंथन करते-करते मक्खन बाहर आता है। छाछको बिलोने पर मक्खन अन्दरसे भिन्न पड जाता है।प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!