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मुमुक्षुः- ... स्वाध्यायमें भी बार-बार सुनते हैं कि ... ज्ञाता-दृष्टापना रखना चाहिये। तो ज्ञाता-दृष्टापना कैसे रखना?
समाधानः- स्वाध्यायमें न? ज्ञाता-दृष्टा तो अन्दर ज्ञायककी परिणति प्रगट हुयी हो तो ज्ञाता-दृष्टापना रहता है। जिसे ज्ञायकपना प्रगट नहीं हुआ है, उसे ज्ञातापन रहना मुश्किल है। ज्ञायकको पहचाने, भेदज्ञान करे और एसी ज्ञाताकी भेदज्ञानकी परिणति प्रगट हुयी हो तो उसे प्रत्येक शुभभावके कोई भी विकल्प हो, शुभाशुभ प्रत्येक भावमें उसे ज्ञातापन सहजरूपसे रहता है। शुभके विकल्प हो तो भी ज्ञाता रहता है। शुभाशुभ प्रत्येक भावमें, सर्व विकल्पमें उसे ज्ञातापना, भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो गयी, ऊच्चसे ऊच्च शुभभाव हो तो भी उसे भेदज्ञान सहजपने, उसकी पुरुषार्थकी गति क्षण-क्षणमें मैं ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञायक हूँ ऐसे सहजपने ज्ञाताके अस्तित्वमें उसकी परिणति उस ओर रहती ही है। कोई भी विकल्प आये उसे भेदज्ञानकी धारा चलती है। उसे श्रुतका चिंतवन हो, शास्त्रका अभ्यास हो तो भी उसे ज्ञातापना सहज रहता है।
लेकिन जिसे एकत्वबुद्धि है, जिज्ञासुकी भूमिका है, उसे ज्ञातापना रहे ऐसा होता नहीं। उसे तो मात्र भावना रहती है कि मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे। भावना करनी रहती है, वह परिणति प्रगट करनी रहती है।
परन्तु जिसे ज्ञायककी दशा प्रगट हुयी है, स्वानुभूतिकी दशा प्रगट हुयी है, वह फिर सविकल्पमें आये तब उसे भेदज्ञानकी धारा रहती है। चाहे जैसे शुभके विकल्प हो तो भी उसे भेदज्ञानकी (चालू रहता है)। भगवानका दर्शन करे, पूजा करे, शास्त्र अभ्यास करे, कुछ भी करे तो भी उसे भेदज्ञानकी धारा चालू ही रहती है। शुभभावमें उसे एकत्वबुद्धि नहीं होती। उसे बाहरसे भगवानकी बहुत भक्ति दिखे, श्रुतका चिंतवन बहुत दिखे तो भी उसे एकत्वबुद्धि नहीं होती, उसे ज्ञायककी धारा भिन्न ही रहती है। उसे अमुक प्रकारका रस दिखे, लेकिन एकत्वबुद्धि नहीं है। उसे स्थिति अल्प पडती है, रस बहुत पडता है, परन्तु उसे भेदज्ञानकी धारा है, उसे स्थिति लंबी नहीं पडती। वह भिन्न रहता है, न्यारा ही रहता है। सहज दशा भेदज्ञानकी धारा रहती है।
मुमुक्षुः- उतना ही सत्य आत्मा है, जितना यह ज्ञान है।